श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- अनादिसिद्ध अज्ञान के कारण शरीर की उपाधि से आत्मा और परमात्मा का भेद अनादिकाल से प्रतीत हो रहा है; इस अज्ञानजनित भेद-प्रतीति को ज्ञानाभ्यास द्वारा मिटा देना अर्थात् शास्त्र और आचार्य के उपदेश से सुने हुए तत्त्वज्ञान का निरन्तर मनन और निदिध्यासन करते-करते नित्य विज्ञानान्दघन, गुणातीत परब्रह्म परमात्मा में अभेदभाव से आत्मा को एक कर देना-विलीन कर देना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ को हवन करना है। इस प्रकार का यज्ञ करने वाले ज्ञानयोगियों की दृष्टि में एक निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के सिवा अपनी या अन्य किसी की भी किंचिन्मात्र सत्ता नहीं रहती, इस त्रिगुणमय संसार से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता। उनके लिये संसार का अत्यन्त अभाव हो जाता है। प्रश्न- पूर्वश्लोक में वर्णित ब्रह्मकर्म से इस अभेद दर्शनरूप यज्ञ का क्या भेद है? उत्तर- दोनों ही साधन सांख्ययोगियों द्वारा किये जाते हैं और दोनों में ही अग्निस्थानीय परब्रह्म परमात्मा है, इस कारण दोनों की एकता–सी प्रतीत होती है तथा दोनों का फल अभिन्नभाव से सच्चिदानन्दघन ब्रह्म की प्राप्ति होने के कारण वास्तव में कोई भेद भी नहीं है, केवल साधन की प्रणाली का भेद है; उसी को स्पष्ट करने के लिये दोनों का वर्णन अलग-अलग किया गया है। पूर्वश्लोक में वर्णित साधन में तो ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’[1] इस श्रुतिवाक्य के अनुसार सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि करने का वर्णन है और उपर्युक्त साधन में समस्त जगत् के सम्बन्ध का अभाव करके आत्मा और परमात्मा में अभेद दर्शन की बात कही गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ छान्दोग्य उ. 3/14/1
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