चतुर्थ अध्याय
प्रश्न- इस रूप में ‘अर्पणम्’ पद का अर्थ यदि हवन करने की क्रिया मान ली जाय तो क्या आपत्ति है?
उत्तर- ‘हुतम्’ पद हवन करने की क्रिया का वाचक है। अतः ‘अर्पणम्’ पद का अर्थ भी क्रिया मान लेने से पुनरुक्ति का दोष आता है। नवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में भी ‘हुतम्’ पद का ही अर्थ ‘हवन की क्रिया’ माना गया है। अतः जिसके द्वारा कोई वस्तु अर्पित की जाय, ‘अप्रयते अनेन’- इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘अर्पणम्’ पद का अर्थ जिसके द्वारा घृत आदि द्रव्य अग्नि में छोड़े जाते हैं, ऐसे स्त्रुवा आदि पात्र मानना ही उचित मालूम पड़ता है।
प्रश्न- ब्रह्म कर्म में स्थित होना क्या है और उसके द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- निरन्तर सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि करते रहना, किसी को भी ब्रह्म से भिन्न नहीं समझना- यही ब्रह्मकर्म में स्थित होना है तथा इस प्रकार के साधन का फल निःसन्देह परब्रह्म परमात्मा की ही प्राप्ति होती है, उपर्युक्त साधन करने वाला योगी दूसरे फल का भागी नहीं होता- यही भाव दिखलाने के लिये ऐसा कहा गया है कि उसके द्वारा प्राप्त किया जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है।
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