श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: ।
उत्तर- जिस मनुष्य को किसी भी सांसारिक वस्तु की कुछ भी आवश्यकता नहीं है, जो किसी भी कर्म से या मनुष्य से किसी प्रकार के भोग-प्राप्ति की किंचिन्मात्र भी आशा या इच्छा नहीं रखता; जिसने सब प्रकार की इच्छा, कामना, वासना आदि का सर्वथा त्याग कर दिया है- उसे ‘निराशीः’ कहते हैं; जिसका अन्तःकरण और समस्त इन्द्रियों सहित शरीर वश में है- अर्थात् जिसके मन और इन्द्रिय राग-द्वेष से रहित हो जानके कारण उन पर शब्दादि विषयों के संग का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता और जिसका शरीर भी जैसे वह उसे रखना चाहता है वैसे ही रहता है- वह चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी ‘यतचित्तात्मा’ है और जिसकी किसी भी वस्तु में ममता नहीं है तथा जिसने समस्त भोग सामग्रियों के संग्रह का भली-भाँति त्याग कर दिया है, वह संन्यासी तो सर्वथा ‘त्यक्तसर्वपरिग्रह’ है ही। इसके सिवा जो कोई दूसरे आश्रम वाला भी यदि उपर्युक्त प्रकार से परिग्रह का त्याग कर देने वाला है तो वह भी ‘त्यक्तसर्वपरिग्रह’ है। इन तीनों विशेषणों का प्रयोग करके इस श्लोक में यह भाव दिखलाया गया है कि जो इस प्रकार बाह्य वस्तुओं से सम्बन्ध न रखकर निरन्तर अन्तरात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, वह सांख्य योगी यदि यज्ञ-दानादि कर्मों का अनुष्ठान न करके केवल शरीर-सम्बन्धी खान-पान आदि कर्म ही करता है, तो भी वह पाप का भागी नहीं होता। क्योंकि उसका वह त्याग आसक्ति या फल की इच्छा से अथवा अहंकारपूर्वक मोह से किया हुआ नहीं है; वह तो आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार से रहित सर्वथा शास्त्रसम्मत त्याग है, अतएव सब प्रकार से संसार का हित करने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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