चतुर्थ अध्याय
त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय: ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति स: ।।20।।
जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वाथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्यतृप्त है, वह कर्मों में भली-भाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता ।।20।।
प्रश्न- समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करना क्या है?
उत्तर- यज्ञ, दान और तप तथा जीविका और शरीर निर्वाह के जितने भी शास्त्र विहित कर्म हैं, उनमें जो मनुष्य की स्वाभाविक आसक्ति होती है- जिसके कारण वह उन कर्मों को किये बिना नहीं रह सकता और कर्म करते समय उनमें इतना संलग्न हो जाता है कि ईश्वर की स्मृति या अन्य किसी प्रकार का ज्ञान तक नहीं रहता- ऐसी आसक्ति से सर्वथा रहित हो जाना, किसी भी कर्म में मन का तनिक भी आसक्त न होना- कर्मों में आसक्ति का सर्वथा त्याग कर देना है और उन कर्मों से प्राप्त होने वाले इस लोक या परलोक के जितने भी भोग हैं- उन सब में जरा भी ममता, आसक्ति और कामना का न रहना, कर्मों के फल में आसक्ति का त्याग कर देना है।
प्रश्न- इस प्रकार आसक्ति का त्याग करके ‘निराश्रय’ और नित्यतृप्त’ हो जाना क्या है?
उत्तर- आसक्ति का सर्वथा त्याग करके शरीर में अहंकार और ममता से सर्वथा रहित हो जाना और किसी भी सांसारिक वस्तु के या मनुष्य के आश्रित न होना अर्थात् अमुक वस्तु या मनुष्य से ही मेरा निर्वाह होता है, यही आधार है, इसके बिना काम ही नहीं चल सकता- इस प्रकार के भावों का सर्वथा अभाव हो जाना ही ‘निराश्रय’ हो जाना है। ऐसा हो जाने पर मनुष्य को किसी भी सांसारिक पदार्थ की किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं रहती, वह पूर्णकाम हो जाता है; उसे परमानन्दस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति हो जाने के कारण वह निरन्तर आनन्द में मग्न रहता है, उसकी स्थिति में किसी भी घटना से कभी जरा भी अन्तर नहीं पड़ता। यही उसका ‘नित्यतृप्त’ हो जाना है।
|