श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- लोकप्रसिद्धि में मन, वाणी और शरीर के व्यापार को त्याग देने का ही नाम अकर्म है; यह त्यागरूप अकर्म भी आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अहंकार पूर्वक किया जाने पर पुनर्जन्म का हेतु बन जाता है; इतना ही नहीं, कर्तव्य-कर्मों की अवहेलना से या दम्भाचार के लिये किया जाने पर तो यह विकर्म (पाप)- के रूप में बदल जाता है- इस रहस्य को समझ लेना ही अकर्म में कर्म देखना है। इस रहस्य को समझने वाला मनुष्य किसी भी वर्णाश्रमोचित कर्म का त्याग न तो शारीरिक कष्ट के भय से करता है, न राग-द्वेष अथवा मोहवश और न मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा या अन्य किसी फल की प्राप्ति के लिये ही करता है। इसलिये वह न तो कभी अपने कर्तव्य से गिरता है और न किसी प्रकार के त्याग में ममता, आसक्ति, फलेच्छा या अहंकार का सम्बन्ध जोड़कर पुनर्जन्म का ही भाग बनता है; इसीलिये वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है। उसका परम पुरुष परमेश्वर से संयोग हो चुका है, इसलिये वह योगी है और उसके लिये कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता, इसलिये वह समस्त कर्म करने वाला है। प्रश्न- कर्म से क्रियमाण, विकर्म से विविध प्रकार के संचित कर्म और अकर्म से प्रारब्ध-कर्म लेकर कर्म में अकर्म देखने का यदि यह अर्थ किया जाय कि क्रियमाण कर्म करते समय यह देखे कि भविष्य में यही कर्म प्रारब्ध-कर्म (अकर्म) बनकर फलभोग के रूप में उपस्थित होंगे और अकर्म में कर्म देखने का यह अर्थ किया जाय कि प्रारब्धरूप फलभोग के समय उन दुःखादि भोगों को अपने पूर्वकृत क्रियमाण कर्मों का ही फल समझे और इस प्रकार समझकर पाप कर्मों का त्याग करके शास्त्र विहित कर्मों को करता रहे, तो क्या आपत्ति है? क्योंकि संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध-कर्मों के ये ही तीन भेद प्रसिद्ध हैं। उत्तर- ठीक है, ऐसा मानना बहुत लाभप्रद है और बड़ी बुद्धिमानी है; किंतु ऐसा अर्थ मान लेने से ‘कवयोऽप्यत्र मोहिताः’, ‘गहना कर्मणो गतिः’, ‘यज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ ‘स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्’, ‘तमाहुः पण्डितं बुधाः’, ‘नेव किज्चित्करोति सः’ आदि वचनों की संगति नहीं बैठती। अतएव यह अर्थ किसी अंश में लाभप्रद होने पर भी प्रकरण-विरुद्ध है। प्रश्न- कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाला साधक भी मुक्त हो जाता है या सिद्ध पुरुष ही इस प्रकार देख सकता है? उत्तर- मुक्त पुरुष के जो स्वाभाविक लक्षण होते हैं, वे ही साधक के लिये साध्य होते हैं। अतएव मुक्त पुरुष तो स्वभाव से ही इस तत्त्व को जानता है और साधक उनके उपदेश द्वारा जानकर उस प्रकार साधन करने से मुक्त हो जाता है। इसीलिये भगवान् ने कहा है कि- ‘‘मैं तुझे वह कर्म तत्त्व बतलाऊँगा, जिसे जानकर तू कर्म-बन्धन से छूट जायगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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