श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
सम्बन्ध- पूर्व श्लोकों में भगवान् यह बात कही कि मेरे जन्म और कर्मों को जो दिव्य समझ लेते हैं, उन अनन्यप्रेमी भक्तों को मेरी प्राप्ति हो जाती है; इस पर यह जिज्ञासा होती है कि उनको आप किस प्रकार और किस रूप में मिलते हैं? इस पर कहते हैं- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरे भक्तों के भजन के प्रकार भिन्न-भिन्न होते हैं। अपनी-अपनी भावना के अनुसार भक्त मेरे पृथक्-पृथक् रूप मानते हैं और अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार मेरा भजन-स्मरण करते हैं अतएव मैं भी उनको उनकी भावना के अनुसार उन-उन रूपों में ही दर्शन देता हूँ। श्रीविष्णुरूप की उपासना करने वालों को श्रीविष्णुरूप में, श्रीरामरूप की उपासना करने वालों को श्रीरामरूप में, श्रीकृष्ण की उपासना करने वालों को श्रीकृष्णरूप में, श्रीशिवरूप की उपासना करने वालों को श्रीशिवरूप में, देवीरूप की उपासना करने वालों को देवीरूप में और निराकार सर्वव्यापी रूप की उपासना करने वालों को निराकार सर्वव्यापी रूप में मिलता हूँ; इसी प्रकार मत्स्य, कच्छप, नृसिंह, वामन आदि अन्यान्य रूपों की उपासना करते हैं- उनको उन-उन रूपों में दर्शन देकर उनका उद्धार कर देता हूँ। इसके अतिरिक्त वे जिस प्रकार जिस-जिस भाव से मेरी उपासना करते हैं, मैं उनके उस-उस प्रकार और उस-उस भाव का अनुसरण करता हूँ। जो मेरा चिन्तन करता है उसका मैं चिन्तन करता हूँ। जो मेरे लिये व्याकुल होता है उसके लिये मैं भी व्याकुल हो जाता हूँ। जो मेरा वियोग सहन नहीं कर सकता, मैं भी उसका वियोग नहीं सहन कर सकता। जो मुझे अपना सर्वस्व अर्पण कर देता है मैं भी उसे अपना सर्वस्व अर्पण कर देता हूँ। जो ग्वाल-बालों की भाँति मुझे अपना सखा मानकर मेरा भजन करते हैं, उनके साथ मैं मित्र के -जैसा व्यवहार करता हूँ। जो नन्द-यशोदा की भाँति पुत्र मानकर मेरा भजन करते हैं, उनके साथ पुत्र के जैसा बर्ताव करके उनका कल्याण करता हूँ। इस प्रकार रुक्मिणी की तरह पति समझकर भजने वालों के साथ पति-जैसा, हनुमान की भाँति स्वामी समझकर भजने वालों के साथ स्वामी-जैसा और गोपियों की भाँति माधुर्य भाव से भजने वालों के साथ प्रियतम-जैसा बर्ताव करके मैं उनका कल्याण करता हूँ और उनको दिव्य लीला-रस का अनुभव कराता हूँ। प्रश्न- मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि लोग मेरा अनुसरण करते हैं, इसलिये यदि मैं इस प्रेम और सौहार्द का बर्ताव करूँगा तो दूसरे लोग भी मेरी देखा-देखी ऐसे ही निःस्वार्थ- भाव से एक-दूसरे के साथ यथा योग्य प्रेम और सुहृदता का बर्ताव करेंगे। अतएव इस नीति का जगत् में प्रचार करने के लिये भी ऐसा करना मेरा कर्तव्य है, क्योंकि जगत् में धर्म की स्थापना करने के लिये ही मैंने अवतार धारण किया है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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