चतुर्थ अध्याय
प्रश्न- धर्म की स्थापना करना क्या है?
उत्तर - स्वयं शास्त्रनुकूल आचरण कर, विभिन्न प्रकार से धर्म का महत्त्व दिखलाकर और लोगों के हृदयों में प्रवेश करने वाली अप्रतिम प्रभावशालिनी वाणी के द्वारा उपदेश-आदेश देकर सब के अन्तःकरण में वेद, शास्त्र, परलोक, महापुरुष और भगवान् पर श्रद्धा उत्पन्न कर देना तथा सद्गुणों में सदाचारों में विश्वास तथा प्रेम उत्पन्न करवाकर लोगों में इन सबको दृढ़तापूर्वक भली-भाँति धारण करा देना आदि सभी बातें धर्म की स्थापना के अन्तर्गत हैं।
प्रश्न- साधुओं का परित्राण, दुष्टों का संहार और धर्म की स्थापना- इन तीनों की एक साथ आवश्यकता होने पर ही भगवान् का अवतार होता है या किसी एक या दो निमित्तों से भी हो सकता है?
उत्तर- ऐसा नियम नहीं है कि तीनों ही कारण एक साथ उपस्थित होने पर ही भगवान् अवतार धारण करें; किसी भी एक या दो उद्देश्यों की पूर्ति के लिये भी भगवान् अवतार धारण कर सकते हैं।
प्रश्न- भगवान् तो सर्वशक्तिमान् हैं, वे बिना अवतार लिये भी तो ये सब काम कर सकते हैं; फिर अवतार की क्या आवश्यकता है?
उत्तर- यह बात सर्वथा ठीक है कि भगवान् बिना ही अवतार लिये अनायास ही सब कुछ कर सकते हैं और करते भी हैं, किंतु लोगों पर विशेष दया करके अपने दर्शन, स्पर्श और भाषणादि के द्वारा सुगमता से लोगों को उद्धार का सुअवसर देने के लिये एवं अपने प्रेमी भक्तों को अपनी दिव्य लीलादि का आस्वादन कराने के लिये भगवान् साकाररूप से प्रकट होते हैं। उन अवतारों में धारण किये हुए रूप का तथा उनके गुण, प्रभाव, नाम माहात्म्य और दिव्य कर्मों का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करके लोग सहज ही संसार-समुद्र से पार हो सकते हैं। यह काम बिना अवतार के नहीं हो सकता।
प्रश्न- मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि मैं प्रत्येक युग में जब-जब युगधर्म की अपेक्षा धर्म की हानि अधिक हो जाती है तब-तब आवश्यकतानुसार बार-बार प्रकट होता हूँ; एक युग में एक बार ही होता हूँ- ऐसा कोई नियम नहीं है।
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