श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- इससे भगवान् ने साधारण जीवों से अपने जन्म की विलक्षणता दिखलायी है। अभिप्राय यह है कि जैसे जीव प्रकृति के वश में होकर अपने-अपने कर्मानुसार अच्छी-बुरी योनियों में जन्म धारण करते हैं और सुख-दुःख भोग करते हैं, उस प्रकार का मेरा जन्म नहीं है। मैं अपनी प्रकृति का अधिष्ठाता होकर स्वयं ही अपनी योगमाया से समय-समय पर दिव्य लीला करने के लिये यथावश्यक रूप धारण किया करता हूँ; मेरा वह जन्म स्वतन्त्र और दिव्य हाता है, जीवों की भाँति कर्मवश नहीं होता। प्रश्न- साधारण जीवों के जन्मने-मरने में और भगवान् के प्रकट और अन्तर्धान होने में क्या अन्तर है? उत्तर- साधारण जीवों के जन्म और मृत्यु उनके कर्मों के अनुसार होते हैं, उनके इच्छानुसार नहीं होते। उनको माता के गर्भ में रहकर कष्ट भोगना पड़ता है। जन्म के समय वे माता की योनि से शरीर सहित निकलते हैं। उसके बाद शनैः-शनैः वृद्धि को प्राप्त होकर उस शरीर का नाश होने पर मर जाते हैं। पुनः कर्मानुसार दूसरी योनि में जन्म धारण करते हैं। किंतु भगवान् का प्रकट और अन्तर्धान होना इससे अत्यन्त विलक्षण है और वह उनकी इच्छा पर निर्भर है; वे चाहे जब चाहे जहाँ चाहे जिस रूप में प्रकट और अन्तर्धान हो सकते हैं; एक क्षण में छोटे से बड़े बन जाते हैं और बड़े से छोटे बन जाते हैं एवं इच्छानुसार रूप का परिवर्तन कर लेते हैं। इसका कारण यह है कि वे प्रकृति से बँधे नहीं हैं, प्रकृति ही उनकी इच्छा का अनुगमन करती है। इसलिये जैसे ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन की प्रार्थना पर भगवान् ने पहले विश्वरूप धारण कर लिया, फिर उसे छिपाकर वे चतुर्भुजरूप से प्रकट हो गये, उसके बाद मनुष्यरूप हो गये- इसमें जैसे एक रूप से प्रकट होना और दूसरे रूप को छिपा लेना, जन्मना-मरना नहीं है- उसी प्रकार भगवान् का किसी भी रूप में प्रकट होना और उसे छिपा लेना जन्मना-मरना नहीं है, केवल लीलामात्र है। प्रश्न- भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म तो माता देवकी के गर्भ से साधारण मनुष्यों की भाँति ही हुआ होगा, फिर लोगों के जन्म में और भगवान् के प्रकट होने में क्या भेद रहा? उत्तर- ऐसी बात नहीं है। श्रीमद्भागवत का वह प्रकरण देखने से इस शंका का अपने-आप ही समाधान हो जायगा। वहाँ बतलाया गया है कि उस माता देवकी ने अपने सम्मुख शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए चतुर्भज दिव्य देवरूप से प्रकट भगवान् को देखा और उनकी स्तुति की। फिर माता देवकी की प्रार्थना से भगवान् ने शिशुरूप धारण किया।[1] अतः उनका जन्म साधारण मनुष्यों की भाँति माता देवकी के गर्भ से नहीं हुआ, वे अपने-आप ही प्रकट हुए थे। जन्मधारण की लीला करने के लिये ऐसा भाव दिखलाया गया था मानो साधारण मनुष्यों की भाँति भगवान् दस महीनों तक माता देवकी के गर्भ में रहे और समय पर उनका जन्म हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्। शंखचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भजम्।।
इत्युक्त्वाऽऽसीद्धरिस्तूष्णीं भगवानात्ममायया। पित्रोः सम्पश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः।। (श्रीमद्भा.10/3/30, 46)
‘हे विश्वात्मन्! शंख, चक्र, गदा और पद्म की शोभा से युक्त इस चार भुजाओं वाले अपने अलौकिक-दिव्यरूप को अब छिपा लीजिये।’
‘ऐसा कहकर भगवान् श्रीहरि चुप हो गये और माता-पिता के देखते-देखते अपनी माया से तत्काल एक साधारण बालक-से हो गये।’
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