श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैं और तुम अभी हुए हैं, पहले नहीं थे- ऐसी बात नहीं है। हम लोग अनादि और नित्य हैं। मेरा नित्य स्वरूप तो है ही; उसके अतिरिक्त मैं मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह और वामन आदि अनेक रूपों में पहले प्रकट हो चुका हूँ। मेरा यह वसुदेव के घर में होने वाला प्राकट्य अर्वाचीन होने पर भी इसके पहले होने वाले अपने विविध रूपों में मैंने असंख्य पुरुषों को अनेक प्रकार के उपदेश दिये हैं। इसलिये मैंने जो यह बात कही है कि यह योग पहले सूर्य से मैंने ही कहा था, इसमें तुम्हें कोई आश्चर्य और असम्भावना नहीं माननी चाहिये; इसका यही अभिप्राय समझना चाहिये कि कल्प के आदि में मैंने नारायण रूप से सूर्य को यह योग कहा था। प्रश्न- उन सबको तू नहीं जानता, किंतु मैं जानता हूँ- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन में भगवान् ने अपनी सर्वज्ञता का और जीवों की अल्पज्ञता का दिग्दर्शन कराया है। भाव यह है कि मैंने किन-किन कारणों से किन-किन रूपों में प्रकट होकर किस-किस समय क्या-क्या लीलाएँ की हैं, उन सबको तुम सर्वज्ञ न होने के कारण नहीं जानते; तुम्हें मेरे और अपने पूर्वजन्मों की स्मृति नहीं है, इसी कारण तुम इस प्रकार प्रश्न कर रहे हो, किंतु मुझसे जगत् की कोई भी घटना छिपी नहीं है; भूत, वर्तमान और भविष्य सभी मेरे लिये वर्तमान हैं। मैं सभी जीवों को और उनकी सब बातों को भली-भाँति जानता हूँ[1], क्योंकि मैं सर्वज्ञ हूँ, अतः जो यह कह रहा हूँ कि मैंने ही कल्प के आदि में इस योग का उपदेश सूर्य को दिया था, इस विषय में तुम्हें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7/26
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