श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन: ।
उत्तर - इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि तुम मेरे चिरकाल के अनुगत भक्त और प्रिय सखा हो; अतएव तुम्हारे सामने अत्यन्त रहस्य की बात भी प्रकट कर दी जाती है, हरेक मनुष्य के सामने रहस्य की बात प्रकट नहीं की जाती। प्रश्न - वही यही पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है, इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर - इस वाक्य में ‘सः एव’ और ‘पुरातनः’- इन पदों के प्रयोग से इस योग की अनादिता सिद्ध की गयी है; ‘ते’ पद से अर्जुन के अधिकार का निरूपण किया गया है और ‘अद्य’ पद से इस योग के उपदेश का अवसर बतलाया गया है। अभिप्राय यह है कि जिस योग को मैंने पहले सूर्य से कहा था और जिसकी परम्परा अनादि काल से चली आती है, उसी पुरातन योग को आज इस युद्ध क्षेत्र में तुम्हें अत्यन्त व्याकुल और शरणागत जानकर शोक की निवृत्तिपूर्वक कल्याण की प्राप्ति कराने के लिये मैंने तुमसे कहा है। शरणागति के साथ-साथ अन्तस्तल की व्याकुलताभरी जिज्ञासा ही एक ऐसी साधना है जो मनुष्य को परम अधिकारी बना देती है। तुमने आज अपने इस अधिकार को सचमुच सिद्ध कर दिया[1]; ऐसा पहले कभी नहीं किया था। इसी से मैंने इस समय तुम्हारे सामने यह रहस्य खोला है। प्रश्न - यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर - इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यह योग सब प्रकार के दुःखों से और बन्धनों से छुड़ाकर परमानन्द स्वरूप मुझ परमेश्वर को सुगमतापूर्वक प्राप्त करा देने वाला है, इसलिये अत्यन्त ही उत्तम और बहुत ही गोपनीय है; इसके सिवा इसका यह भाव भी है कि अपने को सूर्यादि के प्रति इस योग का उपदेश करने वाला बतलाकर और वही योग मैंने तुझसे कहा है, तू मेरा भक्त है- यह कहकर मैंने जो अपना ईश्वर भाव प्रकट किया है, यह बड़ी रहस्य की बात है। अतः अनधिकारी के सामने यह कदापि प्रकट नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2/70
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