श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- कठोपनिषद् में शरीर को रथ और इन्द्रियों को घोड़े बतलाया है[1]; रथ की अपेक्षा घोड़े श्रेष्ठ और चेतन हैं एवं रथ को अपनी इच्छानुसार ले जा सकते हैं। इसी तरह इन्द्रियाँ ही स्थूल देह को चाहे जहाँ ले जाती हैं, अतः उससे बलवान् और चेतन हैं। स्थूल शरीर देखने में आता है, इन्द्रियाँ देखने में नहीं आतीं; इसलिये वे इससे सूक्ष्म भी हैं। इसके सिवा स्थूल शरीर की अपेक्षा इन्द्रियों की श्रेष्ठता-सूक्ष्मता और बलवत्ता प्रत्यक्ष भी देखने में आती है। प्रश्न- कठोपनिषद्[2] में कहा है कि इन्द्रियों की अपेक्षा अर्थ पर है, अर्थों की अपेक्षा मन पर है, मन से बुद्धि पर है, बुद्धि से महत्तत्त्व पर है, समष्टिबुद्धिरूप महत्तत्त्व से अव्यक्त पर है और अव्यक्त से पुरुष पर है; इस पुरुष से पर अर्थात् श्रेष्ठ और सूक्ष्म कुछ भी नहीं है। यही सब की अन्तिम सीमा है और यही परमगति है। परंतु यहाँ भगवान् ने अर्थ, महत्तत्त्व और अव्यक्त को छोड़कर कहा है, इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर- भगवान् ने यहाँ इस प्रकरण का वर्ण साररूप से किया है, इसलिये उन तीनों का काम नहीं लिया; क्योंकि काम को मारने के लिये अर्थ, महत्तत्त्व और अव्यक्त की श्रेष्ठता बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं, केवल का आत्मा का ही महत्त्व दिखलाना है। प्रश्न- कठोरपनिषद् में इन्द्रियों की अपेक्षा अर्थों को पर यानी श्रेष्ठ कैसे बतलाया? उत्तर- वहाँ ‘अर्थ’ शब्द का अभिप्राय पंचतन्मात्राएँ हैं। तन्मात्राएँ इन्द्रियों से सूक्ष्म हैं, इसलिये उनको पर कहना उचित ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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