श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- जो काम दुर्गुणों की श्रेणी में गिना जाता है, जिसका त्याग करने के लिये गीता में जगह-जगह कहा गया है।[1], सोलहवें अध्याय में जिसको नरक का द्वार बतलाया गया है[2], उस सांसरिक विषय-भोगों की कामनारूप् काम का वाचक यहाँ ‘कामरूपेण’ पद है। भगवान् से मिलने की, उनका भजन-ध्यान करने की अथवा सात्त्विक कर्मों के अनुष्ठान करने की जो शुभ इच्छा है, उसका नाम काम नहीं है; वह तो मनुष्य के कल्याण में हेतु है और इस विषय-भोगों की कामनारूप् काम का नाश करने वाली है, वह साधक की शत्रु कैसे हो सकती है? इसलिये गीता में ‘काम’ शब्द का अर्थ सांसारिक इष्टानिष्ट भोगों के संयोग-वियोग की कामना या भोग्य पदार्थ ही समझना चाहिये। इसी प्रकार यह भी समझ लेना चाहिये कि चौंतीसवें श्लोक में या अन्यत्र कहीं जो ‘राग’ या ‘संग’ शब्द आये हैं, वे भी भगवद्-विषयक अनुराग के वाचक नहीं हैं, कामोत्पादक भोगासक्ति के ही वाचक हैं। प्रश्न- ‘ज्ञानम्’ पद किस ज्ञान का वाचक है? और इसको काम के द्वारा ढका हुआ बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- यहाँ ‘ज्ञानम्’ पद परमात्मा के यथार्थ ज्ञान का वाचक है और उसको काम के द्वारा ढका हुआ बतलाकर यह भाव दिखलाया है कि जैसे जेर से आवृत रहने पर भी बालक उस जेर को चीरकर उसके बाहर निकलने में समर्थ होता है और अग्नि जैसे प्रज्वलित होकर अपना आवरण करने वाले धुएँ का नाश कर देता है, उसी प्रकार जिस समय किसी संत महापुरुष के या शास्त्रों के उपदेश से परमात्मा के तत्त्व का ज्ञान जाग्रत हो जाता है, उस समय वह काम से आवृत होने पर भी काम का नाश करके स्वयं प्रकाशित हो उठता है। अतः काम उसको आवृत करने वाला होने पर भी वस्तुतः उसकी अपेक्षा सर्वथा बलहीन ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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