श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- ‘बस, और कुछ भी नहीं चाहिये, ऐसे तृप्ति के भाव का वाचक ‘अलम्’ अव्यय है; इसका जिसमें अभाव हो, उसे ‘अनल’ कहते हैं। अग्नि में चाहे जितना घृत और ईंधन क्यों न डाला जाय, उसकी तृप्ति कभी नहीं होती; इसीलिये अग्नि का नाम ‘अनल’ है। जो किसी प्रकार पूर्ण न हो, उसे ‘दुष्पूर’ कहते हैं। अतः यहाँ उपर्युक्त विशेषणों का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि यह ‘काम’ भी अग्नि की भाँति ‘अनल’ और ‘दुष्पूर’ है। मनुष्य जैसे-जैसे विषयों को भोगता है, वैसे-ही-वैसे अग्नि की भाँति उसका ‘काम’ बढ़ता रहता है, उसकी तृप्ति नहीं होती। राजा ययाति ने बहुत-से भोगों को भोगने के बाद अन्त में कहा था- न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। ‘विषयों के उपभोग से ‘काम’ कभी शान्त नहीं होता, बल्कि घृत से अग्नि की भाँति और अधिक ही बढ़ता जाता है।’ प्रश्न- यहाँ ‘ज्ञानिनः’ पद किन ज्ञानियों का वाचक है और काम को उनका ‘नित्यवैरी’ बतलाने का क्या भाव है? उत्तर- यहाँ ‘ज्ञानिनः’ पद यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये साधन करने वाले विवेकशील साधकों का वाचक है। यह कामरूप शत्रु उन साधकों के अन्तःकरण में विवेक, वैराग्य और निष्कामभाव को स्थिर नहीं होने देता, उनके साधन में बाधा उत्पन्न करता रहता है। इस कारण इसको ज्ञानियों का ‘नित्यवैरी’ बतलाया गया है। वास्तव में तो यह काम सभी को अधोगति में ले जाने वाला होने के कारण सभी का वैरी है; परंतु अविवेकी मनुष्य विषयों को भोगते समय भोगों में सुख बुद्धि होने के कारण भ्रम से इसे मित्र के सदृश समझते हैं और इसके तत्त्व को जानने वाले विवेकियों को यह प्रत्यक्ष ही हानिकर दीखता है। इसीलिये इसको अविवेकियों का नित्यवैरी न बतलाकर ज्ञानियों का नित्यवैरी बतलाया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 9/11/14
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