श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- इससे यह दिखलाया गया है कि यदि स्वधर्म-पालन में किसी तरह की आपत्ति न आवे और जीवनभर मनुष्य उसका पालन कर ले तो उसे अपने भावानुसार स्वर्ग की या मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है, इसमें तो कहना ही क्या है; किसी प्रकार की आपत्ति आने पर वह अपने धर्म से न डिगे और उसके कारण उसका मरण हो जाय तो वह मरण भी उसके लिये कल्याण करने वाला हो जाता है। इतिहासों और पुराणों में ऐसे बहुत उदाहरण मिलते हैं, जिनमें स्वधर्म पालन के लिये मरने वालों का एवं मरण पर्यन्त कष्ट स्वीकार करने वालों का कल्याण होने की बात कही गयी है। राजा दिलीप ने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए एक गौ के बदले अपना शरीर सिंह को समर्पित करके अभीष्ट प्राप्त किया; राजा शिवि ने शरणागत रक्षारूप स्वधर्म का पालन करने के लिये एक कबूतर के बदले में अपने शरीर का मांस बाज को देकर मरना स्वीकार किया और उससे उनके अभीष्ट की सिद्धि हुई; प्रह्लाद ने भगवदक्तिरूप स्वधर्म का पालन करने के लिये अनेकों प्रकार के मृत्यु के साधनों को सहर्ष स्वीकार किया और इससे उनका परम कल्याण हो गया। इसी प्रकार के और भी बहुत-से उदाहरण मिलते हैं। महाभारत में कहा गया है- न जातु कमान्न भयान्न लोभाद् अर्थात् ‘मनुष्य को किसी भी समय काम से, भय से, लोभ से या जीवन रक्षा के लिये भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य है तथा जीव नित्य है और जीवन का हेतु अनित्य है।’ इसलिये मरण-संकट उपस्थित होने पर भी मनुष्य को चाहिये कि वह हँसते-हँसते मृत्यु को वरण कर ले; पर स्वधर्म का त्याग किसी भी हालत में न करे। इसी में उसका सब प्रकार से कल्याण है। प्रश्न- दूसरे का धर्म भय देने वाला है, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इससे यह दिखलाया है कि दूसरे के धर्म का पालन यदि सुखपूर्वक होता हो तो भी वह भय देने वाला है। उदाहरणार्थ- शूद्र और वैश्य यदि अपने से उच्च वर्ण वालों के धर्म का पालन करने में लगें तो उच्च वर्णों से अपनी पूजा कराने के कारण और उनकी वृत्तिच्छेद करने के दोष के कारण वे पाप के भागी बन जाते हैं और फलतः उनको नरक भोगना पड़ता है। इसी प्रकार ब्राह्मण-क्षत्रिय यदि अपने से हीन वर्ण वालों के धर्म का अवलम्बन कर लें तो उनका उस वर्ण से पतन हो जाता है एवं बिना आपत्तिकाल के दूसरों की वृत्ति से निर्वाह करने पर दूसरों की वृत्तिच्छेद के पाप का भी फल उन्हें भोगना पड़ता है। इसी तरह आश्रम-धर्म तथा अन्य सब धर्मों के विषय में समझ लेना चाहिये। अतएव किसी भी मनुष्य को अपने कल्याण के लिये परधर्म के ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। दूसरे का धर्म देखने में चाहे कितना ही गुणसम्पन्न क्यों न हो, वह जिसका धर्म है, उसी के लिये है; दूसरे के लिये तो वह भय देने वाला ही है, कल्याण-कारक नहीं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्वर्गारोहण. 5/63
- ↑ मनुस्मृति में भी यही बात कही है-
वरं स्वधर्मो विगुणो न पार्क्य: स्वनुष्ठित। परधर्मेण जीवन् हि सद्य: पतित जातित्।। (10।97)
'गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, परंतु भली-भाँति पालन किया हुआ पर-धर्म श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि दूसरे के धर्म से जीवन धारण करने वाला मनुष्य जाति से तुरंत ही पतित हो जाता है।'
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