तृतीय अध्याय
प्रश्न- प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष दोनों कैसे छिपे हुए हैं और उनके वश में न होना क्या है?
उत्तर- जिस वस्तु, प्राणी या घटना में मनुष्य को सुख की प्रतीति होती है, जो उसके अनुकूल होता है, उसमें उसकी आसक्ति हो जाती है- इसी को ‘राग’ कहते हैं और जिसमें उसे दुःख की प्रतीति होता है, जो उसके प्रतिकूल होता है, उसमें उसका द्वेष हो जाता है। वास्तव में किसी भी वस्तु में सुख और दुःख नहीं हैं, मनुष्य की भावना के अनुसार एक ही वस्तु किसी को सुखप्रद प्रतीत होती है और किसी को दुःखप्रद। तथा एक ही मनुष्य को जो वस्तु एक समय सुखप्रद प्रतीत होती है वही दूसरे समय दुःखप्रद प्रतीत होने लग जाती है। अतएव प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग-द्वेष छिपे हुए हैं यानी सभी वस्तुओं में राग और द्वेष दोनों ही रहा करते हैं; क्योंकि जब-जब मनुष्य का उनके साथ संयोग-वियोग होता है तब-तब राग-द्वेष का प्रादुर्भाव होता देखा जाता है। अतएव शास्त्र विहित कर्तव्य कर्मों का आचरण करते हुए मन और इन्द्रियों के साथ विषयों का संयोग-वियोग होते समय किसी भी वस्तु, प्राणी, क्रिया या घटना में प्रिय और अप्रिय की भावना न करके, सिद्धि-असिद्धि, जय-पराजय और लाभ-हानि आदि में समभाव से युक्त रहना, तनिक भी हर्ष-शोक न करना- यही राग-द्वेष के वश में न होना है। क्योंकि राग–द्वेष के वश में होने से ही मनुष्य की सब में विषम बुद्धि होकर अन्तःकरण में हर्ष-शोकादि विकार हुआ करते हैं। अतः मनुष्य को परमेश्वर की शरण ग्रहण करके इन राग-द्वेषों से सर्वथा अतीत हो जाना चाहिये।
प्रश्न- राग और द्वेष- ये दोनों मनुष्य के कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु कैसे हैं?
उत्तर- मनुष्य अज्ञान वश राग-द्वेष- इन दोनों के वश होकर विनाश शील भोगों को सुख के हेतु समझकर कल्याण-मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है। राग-द्वेष साधक को धोखा देकर विषयों में फँसा लेते हैं और उसके कल्याण मार्ग में विघ्न उपस्थित करके मनुष्य जीवनरूप अमूल्य धन को लूट लेते हैं। इस कारण वह मनुष्य जन्म के परम फल से वंचित रह जाता है और राग-द्वेष के वश होकर विषय भोगों के लिये स्वधर्म का त्याग, परधर्म का ग्रहण या नाना प्रकार के निषिद्ध कर्मों का आचरण करता है; इसके फलस्वरूप मरने के बाद भी उसकी दुर्गति होती है। इसीलिये इनको परिपन्थी यानी सत्-मार्ग में विघ्न करने वाले शत्रु बतलाया गया है।
प्रश्न- ये राग-द्वेष साधक के कल्याण मार्ग में किस प्रकार बाधा डालते हैं?
उत्तर- जिस प्रकार अपने निश्चित स्थान पर जाने के लिये राह चलने वाले किसी मुसाफिर को मार्ग में विघ्न करने वाले लुटेरों से भेंट हो जाय और वे मित्रता का-सा भाव दिखलाकर और उसके साथी गाड़ीवान आदि से मिलकर उनके द्वारा उसकी विवेक शक्ति में भ्रम उत्पन्न कराकर उसे मिथ्या सुखों का प्रलोभन देकर अपनी बातों में फँसा लें और उसे अपने गन्तव्य स्थान की ओर न जाने देकर उसके विपरीत जंगल में ले जायँ और उसका सर्वस्व लूटकर उसे गहरे गड्ढे में गिरा दें, उसी प्रकार ये राग-द्वेष कल्याण मार्ग में चलने वाले साधक से भेंट करके मित्रता का भाव दिखलाकर उसके मन और इन्द्रियों में प्रविष्ट हो जाते हैं और उसकी विवेकशक्ति को नष्ट करके तथा उसे सांसारिक विषय-भोगों के सुख का प्रलोभन देकर पापाचार में प्रवत्त कर देते हैं। इससे उसका साधन क्रम नष्ट हो जाता है और पापों के फलस्वरूप उसे घोर नरकों में पड़कर भयानक दुःखों का उपभोग करना होता है।
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