श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- इससे यही भाव दिखलाया है कि कोई भी मनुष्य हठपूर्वक क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता[1], प्रकृति उससे जबरन कर्म करा लेगी[2]; अतः मनुष्य को विहित कर्म का त्याग करके कर्मबन्धन से छूटने का आग्रह न रखकर स्वभाव नियत कर्म करते हुये ही कर्मबन्धन से छूटने का उपाय करना चाहिये। उसी में मनुष्य सफल हो सकता है, विहित कर्मों के त्यागसे तो वह स्वेच्छाचारी होकर उलटा पहले से भी अधिक कर्म बन्धन में जकड़ा जाता है और उसका पतन हो जाता है। प्रश्न- यदि सबको प्रकृति के अनुसार कर्म करने ही पड़ते हैं, मनुष्य की कुछ भी स्वतन्त्रता नहीं है तो फिर विधि-निषेधात्मक शास्त्र का क्या उपयोग है? स्वभाव के अनुसार मनुष्य को शुभाशुभ कर्म करने ही पड़ेंगे और उन्हीं के अनुसार उसकी प्रकृति बनती जायेगी, ऐसी अवस्था में मनुष्य का उत्थान कैसे हो सकता है? उत्तर- शास्त्रविरुद्ध असत् कर्म होते हैं राग-द्वेषादि के कारण और शास्त्र विहित सत्कर्मों के आचरण में श्रद्धा, भक्ति आदि सद्गुण प्रधान कारण हैं। राग-द्वेष, काम-क्रोधादि दुर्गुणों का त्याग करने में और श्रद्धा, भक्ति आदि सद्गुणों को जाग्रत करके उन्हें बढ़ाने में मनुष्य स्वतन्त्र है। अतएव दुर्गुणों का त्याग करके भगवान् में और शास्त्रों में श्रद्धा-भक्ति रखते हुए भगवान की प्रसन्नता के लिये कर्मों का आचरण करना चाहिये। इस आदर्श को सामने रखकर कर्म करने वाले मनुष्य के द्वारा निषिद्ध कर्म तो होते ही नहीं, शुभ कर्म होते हैं, वे भी मुक्तिप्रद ही होते हैं, बन्धनकारक नहीं। अभिप्राय यह है कि कर्मों को रोकने में मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है, उसे कर्म तो करने ही पड़ेंगे; परंतु सद्गुणों का आश्रय लेकर अपनी प्रकृति का सुधार करने में सभी स्वतन्त्र हैं। ज्यों-ज्यों प्रकृति में सुधार होगा त्यों-ही-त्यों क्रियाएँ अपने-आप ही विशुद्ध होती चली जायँगी। अतएव भगवान् की शरण होकर अपने स्वभाव का सुधार करना चाहिये। इसी से उत्थान हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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