श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- ज्ञानी का वस्तुतः न तो कर्म-संस्कारों से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध रहता है और न वह किसी प्रकार की कोई क्रिया ही करता है; किंतु उसके अन्तःकरण में पूर्वार्जित प्रारब्ध के संस्कार रहते हैं और उसी के अनुसार उसके बुद्धि, मन और इन्द्रियों द्वारा प्रारब्ध-भोग और लोक-संग्रह के लिये बिना ही कर्ता के क्रियाएँ हुआ करती हैं; उन्हीं क्रियाओं का लोक दृष्टि से ज्ञानी में अध्यारोप करके कहा जाता है कि ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। ज्ञानी की क्रियाएँ बिना कर्तापन के होने से राग-द्वेष और अहंता-ममता से सर्वथा शून्य होती हैं, अतएव वे चेष्टा मात्र हैं, उनकी संज्ञा ‘कर्म’ नहीं है- यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ ‘चेष्टते’ क्रिया का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ज्ञानी के अन्तःकरण में राग-द्वेष और हर्ष-शोकादि विकार होते ही नहीं या उनसे उसका सम्बन्ध नहीं रहता? यदि उसका अन्तःकरण के साथ सम्बन्ध न रहने के कारण उस अन्तःकरण में विकार नहीं होते तो शम, दम, तितिक्षा, दया, सन्तोष आदि सद्गुण भी उसमें नहीं होने चाहिये? उत्तर- ज्ञानी का जब अन्तःकरण से ही सम्बन्ध नहीं रहता तब उसमें होने वाले विकारों से या सद्गुणों से सम्बन्ध कैसे रहा सकता है? किन्तु उसका अन्तःकरण भी अत्यन्त पवित्र हो जाता है; निरन्तर परमात्मा के स्वरूप् का चिन्तन करते-करते जब अन्तःकरण में मल, विक्षेप और आवरण- इन तीनों दोषों का सर्वथा अभाव हो जाता है, तभी साधक को परमात्मा की प्राप्ति होती है। इस कारण उस अन्तःकरण में अविद्यामूलक अहंता, ममता, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, दम्भ-कपट, काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि विकार नहीं रह सकते- इनका उसमें सर्वथा अभाव हो जाता है। अतएव ज्ञानी महात्मा पुरुष के उस अत्यन्त निर्मल और परम पवित्र अन्तःकरण में केवल समता, सन्तोष, दया, क्षमा, निःस्पृहता, शान्ति आदि सद्गुणों की स्वाभाविक स्फुरणा होती है और उन्हीं के अनुसार लोक संग्रह के लिये उसके मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा शास्त्र विहित कर्म किये जाते हैं। दुर्गुण और दुराचारों का उसमें अत्यन्त अभाव हो जाता है। प्रश्न- इतिहास और पुराणों की कथाओं में ऐसे बहुत-से प्रसंग आते हैं, जिनसे ज्ञानी सिद्ध महापुरुषों के अन्तःकरण में भी काम-क्रोधादि दुर्गुणों का प्रादुर्भाव और इन्द्रियों द्वारा उनके अनुसार क्रियाओं का होना सिद्ध होता है; उस विषय में क्या समझना चाहिये? उत्तर- उदाहरण की अपेक्षा विधि-वाक्य बलवान् है और विधि-वाक्य से भी निषेधपरक वाक्य अधिक बलवान् है, इसके सिवा इतिहास-पुराणों की कथाओं में जो उदाहरण मिलते हैं उनका रहस्य ठीक-ठीक समझ में आना कठिन भी है। इसलिये यही मानना उचित है कि यदि किसी के अन्तःकरण में सचमुच काम-क्रोधादि दुर्गुणों का प्रादुर्भाव हुआ हो और उनके अनुसार क्रिया हुई हो तब तो वह भगवत्प्राप्त ज्ञानी महात्मा ही नहीं है; क्योंकि शास्त्रों में कहीं भी ऐसे विधि-वाक्य नहीं मिलते जिनके बल पर ज्ञानी महात्मा में काम-क्रोधादि अवगुणों का होना सिद्ध होता है, बल्कि उनके निषेध की बात जगह-जगह आयी है। गीता में भी जहाँ-जहाँ महापुरुषों के लक्षण बतलाये गये हैं, उनमें राग-द्वेष और काम-क्रोध आदि दुर्गुण और दुराचारों का सर्वथा अभाव दिखलाया गया है।[1] हाँ, यदि लोक-संग्रह के लिये आवश्यक होने पर उन्होंने स्वाँग की भाँति ऐसी चेष्टा की हो तो उसकी गणना अवश्य ही दोषों में नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5/26, 28;12/17
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