श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- सर्वन्तर्यामी परमेश्वर के गुण, प्रभाव और स्वरूप को समझकर उन पर विश्वास करने वाले और निरन्तर सर्वत्र उनका चिन्तन करते रहने वाले चित्त का वाचक यहाँ ‘चेतस्’ शब्द है। इस प्रकार के चित्त से जो भगवान् को सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर तथा परम प्राप्य, परम गति, परम हितैषी, परम प्रिय, परम सुहृद् और परम दयालु समझकर, अपने अन्तःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर को, उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों को और जगत् के समस्त पदार्थों को भगवान् के जानकर उन सब में ममता और आसक्ति का सर्वथा त्याग कर देना तथा मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं है भगवान ही सब प्रकार की शक्ति प्रदान करके मेरे द्वारा अपने इच्छानुसार यथायोग्य समस्त कर्म करवा रहे हैं, मैं तो केवल निमित्तमात्र हूँ- इसी प्रकार अपने को सर्वथा भगवान् के अधीन समझकर भगवान् के आज्ञानुसार उन्हीं के लिये उन्हीं की प्रेरणा से जैसे वे करावें वैसे ही समस्त कर्मों को कठपुतली की भाँति करते रहना, उन कर्मों से या उनके फल से किसी प्रकार का भी अपना मानसिक सम्बन्ध न रखकर सब कुछ भगवान् का समझना- यही ‘अध्यात्मचित्त से समस्त कर्मों को भगवान् में समर्पण कर देना’ है। इसी प्रकार भगवान् में समस्त कर्मों का त्याग करने की बात बारहवें अध्याय के छठे श्लोक में तथा अठाहरवें अध्याय के सत्तावनवें और छाछठवें श्लोकों में भी कहीं गयी है। प्रश्न- उपर्युक्त प्रकार समस्त कर्म भगवान् में अर्पण कर देने पर आशा, ममता और संताप का तो अपने-आप ही नाश हो जाता है; फिर यहाँ आशा, ममता और सन्ताप से रहित होकर युद्ध करने के लिये कहने का क्या भाव है? उत्तर- भगवान् में अध्यात्म चित्त से समस्त कर्म समर्पण कर देने पर आशा, ममता और सन्ताप नहीं रहते- इसी भाव को स्पष्ट करने के लिये यहाँ भगवान् ने अर्जुन को आशा, ममता और सन्ताप से रहित होकर युद्ध करने के लिये कहा है। अभिप्राय यह है कि तुम समस्त कर्मों का भार मुझ पर छोड़कर सब प्रकार से आशा-ममता, राग-द्वेष और हर्ष-शोक आदि विकारों से रहित हो जाओ और ऐसे होकर मेरी आज्ञा के अनुसार युद्ध करो। इसलिये यह समझना चाहिये कि कर्म करते समय या उनका फल भोगते समय जब तक साधक की उन कर्मों में या भोगों में ममता आसक्ति या कामना है अथवा उसके अन्तःकरण में राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार होते हैं, तब तक उसके समस्त कर्म भगवान् के समर्पित नहीं हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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