|
तृतीय अध्याय
सम्बन्ध- अर्जुन की प्रार्थना के अनुसार भगवान् ने उसे एक निश्चित कल्याण कारक साधन बतलाने के उद्देश्य से चौथे श्लोक से लेकर यहाँ तक यह बात सिद्ध की कि मनुष्य किसी भी स्थिति में क्यों न हो, उसे अपने वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुरूप विहित कर्म करते ही रहना चाहिये। इस बात को सिद्ध करने के लिये पूर्व श्लोकों में भगवान् ने क्रमशः निम्नलिखित बातें कही हैं-
- कर्म किये बिना नैष्कर्म्यसिद्धिरूप कर्मनिष्ठा नहीं मिलती।[1]
- कर्मों का त्याग कर देने मात्र से ज्ञाननिष्ठा सिद्ध नहीं होती।[2]
- एक क्षण के लिये भी मनुष्य सर्वथा कर्म किये बिना नहीं रह सकता।[3]
- बाहर से कर्मों का त्याग करके मन से विषयों का चिन्तन करते रहना मिथ्याचार है।[4]
- मन-इन्द्रियों को वश में करके निष्काम भाव से कर्म करने वाला श्रेष्ठ है।[5]
- कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है।[6]
- बिना कर्म किये शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता।[7]
- यज्ञ के लिये किये जाने वाले कर्म बन्धन करने वाले नहीं, बल्कि मुक्ति के कारण हैं।[8]
- कर्म करने के लिये प्रजापति की आज्ञा है और निःस्वार्थ भाव से उसका पालन करने से श्रेय की प्राप्ति होती है।[9]
- कर्तव्य का पालन किये बिना भोगों का उपभोग करने वाला चोर है।[10]
- कर्तव्य-पालन करके यज्ञशेष से शरीर निर्वाह के लिये भोजनादि करने वाला सब पापों से छूट जाता है।[11]
- जो यज्ञादि न करके केवल शरीर पालन के लिये भोजन पकाता है, वह पापी है।[12]
- कर्तव्य कर्म के त्याग द्वारा सृष्टि चक्र में बाधा पहुँचाने वाले मनुष्य का जीवन व्यर्थ और पापमय है।[13]
- अनासक्त भाव से कर्म करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है।[14]
- पूर्वकाल में जनकादि ने भी कर्मों द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की थी।[15]
- दूसरे मनुष्य श्रेष्ठ महापुरुष का अनुकरण करते हैं, इसलिये श्रेष्ठ महापुरुष को कर्म करना चाहिये।[16]
- भगवान् को कुछ भी कर्तव्य नहीं है, तो भी वे लोकसंग्रह के लिये कर्म करते हैं।[17]
- ज्ञानी के लिये कोई कर्तव्य नहीं है, तो भी उसे लोकसंग्रह के लिये कर्म करना चाहिये।[18]
- ज्ञानी को स्वयं विहित कर्मों का त्याग करके या कर्मत्याग का उपदेश देकर किसी प्रकार भी लोगों को कर्तव्य कर्म से विचलित न करना चाहिये वरं स्वयं कर्म करना और दूसरों से करवाना चाहिये।[19]
- ज्ञानी महापुरुष को उचित है कि विहित कर्मों का स्वरूपतः त्याग करने का उपदेश देकर कर्मासक्त मनुष्यों को विचलित न करे।[20]
इस प्रकार कर्मों की अवश्य कर्तव्यता का प्रतिपादन करके अब भगवान् अर्जुन की दूसरे श्लोक में की हुई प्रार्थना के अनुसार उसे परम कल्याण की प्राप्ति का ऐकान्तिक और सर्वश्रेष्ठ निश्चित साधन बतलाते हुए युद्ध के लिये आज्ञा देते हैं-
|
|