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तृतीय अध्याय
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।। 28 ।।
परन्तु हे महाबाहो! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जानने वाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता।।28।।
प्रश्न- ‘तु’ पद के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- सत्ताईसवें श्लोक में वर्णित अज्ञानी की स्थिति से ज्ञानयोगी की स्थिति का अत्यन्त भेद है, यह दिखलाने के लिये ‘तु’ पद का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न- गुणविभाग और कर्मविभाग क्या है तथा उन दोनों के तत्त्व को जानना क्या है?
उत्तर- सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के कार्यरूप जो तेईस तत्त्व हैं, जिनका वर्णन पूर्वश्लोक की व्याख्या में किया गया है, इन तेईस तत्त्वों का समुदाय ही गुण विभाग है। ध्यान रहे कि अन्तःकरण के जो सात्त्विक, राजस और तामस भाव हैं, जिनके सम्बन्ध से कर्मों के सात्त्विक, राजस और तामस- ऐसे तीन भेद माने जाते हैं और जिनके सम्बन्ध से अमुक मनुष्य सात्त्विक है, अमुक राजस और तामस है- ऐसा कहा जाता है, वे गुण वृत्तियाँ भी गुणविभाग के ही अन्तर्गत हैं। उपर्युक्त गुणविभाग से जो भिन्न-भिन्न क्रियाएँ की जाती हैं, जिनका वर्णन पूर्व श्लोक की व्याख्या में किया जा चुका है, जिन क्रियाओं में कर्तत्त्वाभिमान एवं आसक्ति होने से मनुष्य का बन्धन होता है, उन समस्त क्रियाओं का समूह ही कर्मविभाग हैं। उपर्युक्त गुणविभाग और कर्म विभाग सब प्रकृति का ही विस्तार है। अतएव ये सभी जड, क्षणिक, नाशवान् और विकारशील हैं, मायामय हैं, स्वप्न की भाँति बिना हुए ही प्रतीत हो रहे हैं। इस गुणविभाग और कर्मविभाग से आत्मा सर्वथा अलग है, आत्मा का इनसे जरा भी सम्बन्ध नहीं है; वह सर्वथा निर्गुण, निराकार, निर्विकार, नित्य शुद्ध, मुक्त और ज्ञानस्वरूप है- इस तत्त्व को भली-भाँति समझ लेना ही ‘गुणविभाग’ और ‘कर्मविभाग’ के तत्त्व को जानना है।
प्रश्न- ‘गुणविभाग’ और ‘कर्मविभाग’ के तत्त्व को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता- इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर- इस वाक्य से यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त प्रकार से गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली हरेक क्रिया में यही समझता है कि गुणों के कार्यरूप मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि करण ही गुणों के कार्यरूप अपने-अपने विषयों में बरत रहे हैं, मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। इस कारण वह किसी भी कर्म में या कर्मफलरूप भोगों में आसक्त नहीं होता अर्थात् किसी भी कर्म से या उसके फल से अपना किसी प्रकार का भी सम्बन्ध स्थापित नहीं करता। उनको अनित्य, जड, विकारी और नाशवान् तथा अपने को सदा-सर्वदा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, निर्विकार, अकर्ता और सर्वथा असंग समझता है। पाँचवे अध्याय के आठवें और नवें श्लोकों में और चौदहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भी यही बात कही गयी है।
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