तृतीय अध्याय
प्रश्न- यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’- इन दोनों पदों का प्रयोग करके भगवान् ने क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर- स्वाभाविक स्नेह, आसक्ति और भविष्य में उससे सुख मिलने की आशा होने के कारण माता अपने पुत्र का जिस प्रकार सच्ची हार्दिक लगन, उत्साह और तत्परता के साथ लालन-पालन करती है, उस प्रकार दूसरा कोई नहीं कर सकता; इसी तरह जिस मनुष्य की कर्मों में उनसे प्राप्त होने वाले भोगों में स्वाभाविक आसक्ति होती है और उनका विधान करने वाले शास्त्रों में जिसका विश्वास होता है, वह जिस प्रकार सच्ची लगन से श्रद्धा और विधिपूर्वक शास्त्र विहित कर्मों को सांगोपांग करता है, उस प्रकार जिनकी शास्त्रों में श्रद्धा और शास्त्र विहित कर्मों में प्रवृत्ति नहीं है, वे मनुष्य नहीं कर सकते। अतएव यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ का प्रयोग करके भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा अभाव होने पर भी ज्ञानी महात्माओं को केवल लोक संग्रह के लिये कर्मासक्त मनुष्यों की भाँति ही शास्त्र विहित कर्मों का विधिपूर्वक सांगोपांग अनुष्ठान करना चाहिये।
प्रश्न- यहाँ ‘विद्वान्’ का अर्थ तत्त्वज्ञानी न मानकर शास्त्र ज्ञानी मान लिया जाय तो क्या हानि है?
उत्तर- ‘विद्वान’ के साथ ‘असक्तः’ विशेषण का प्रयोग है, इस कारण इसका अर्थ केवल शास्त्र ज्ञानी ही नहीं माना जा सकता; क्योंकि शास्त्र ज्ञान मात्र से कोई मनुष्य आसक्ति रहित नहीं हो जाता।
प्रश्न- ‘लोकसंग्रहं चिकीर्षुः’ पद से यह सिद्ध होता है कि ज्ञानी में भी इच्छा रहती है; क्या यह बात ठीक है?
उत्तर- हाँ, रहती है; परंतु यह अत्यन्त ही विलक्षण होती है। सर्वथा इच्छा रहित पुरुष में होने वाली इच्छा का क्या स्वरूप होता है, यह समझाया नहीं जा सकता; इतना ही कहा जा सकता है कि उसकी यह इच्छा साधारण मनुष्यों को कर्म तत्पर बनाये रखने के लिये कहने मात्र की ही होती है। ऐसी इच्छा तो भगवान् में भी रहती है। वास्तव में तो यह इच्छा इच्छा ही नहीं है, अतएव यहाँ ‘लोकसंग्रहं चिकीर्षुः’ से यह भाव समझना चाहिये कि कहीं उसकी देखा-देखी दूसरे लोग अपने कर्तव्य-कर्मों का त्याग करके नष्ट-भ्रष्ट न हो जायँ, इस दृष्टि से ज्ञानी के द्वारा केवल लोकहितार्थ उचित चेष्टा होती है; सिद्धान्ततः इसके अतिरिक्त उसके कर्मों का कोई दूसरा उद्देश्य नहीं रहता।
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