श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- कुन्ती के दो नाम थे- ‘पृथा’ और ‘कुन्ती’। बाल्यावस्था में जब तक वे अपने पिता शूरसेन के यहाँ रहीं तब तक उनका नाम ‘पृथा’ था और जब वे राजा कुन्तिभोज के यहाँ गोद चली गयीं तब से उनका नाम ‘कुन्ती’ पड़ा। माता के इन नामों के सम्बन्ध से ही अर्जुन को पार्थ और कौन्तेय कहा जाता है। यहाँ भगवान् अर्जुन को कर्म में प्रवृत्त करते हुए परम स्नेह और आत्मीयता के सूचक ‘पार्थ’ नाम से सम्बोधित करके मानो यह कह रहे हैं कि ‘मेरे प्यारे भैया! मैं तुम्हें कोई ऐसी बात नहीं बतला रहा हूँ जो किसी अंश में भी निम्न श्रेणी की हो; तुम मेरे अपने भाई हो, मैं तुमसे वही कहता हूँ जो मैं स्वयं करता हूँ और जो तुम्हारे लिये परम श्रेयस्कर है।’ प्रश्न- तीनों लोकों में मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि मनुष्य का सम्बन्ध तो केवल इसी लोक से हैं अतः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों की सिद्धि के लिये उसके कर्तव्य का विधान इस लोक में होता है; किन्तु मैं साधारण मनुष्य नहीं हूँ, स्वयं ही सबके कर्तव्य का विधान करने वाला साक्षात् परमेश्वर हूँ। अतः स्वर्ग, मृत्युलोक और पाताल इन तीनों ही लोकों में सदा स्थित हूँ। मेरे लिये किसी लोक में कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है। प्रश्न- मुझे इन तीनों लोकों में कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस लोक की तो बात ही क्या है, तीनों लोकों में कहीं भी ऐसी कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु नहीं है; जो मुझे प्राप्त न हो; क्योंकि मैं सर्वेश्वर, पूर्णकाम और सबकी रचना करने वाला हूँ। प्रश्न- तो भी मैं कर्मों में ही बरतता हूँ इस कथन का क्या भाव है? उत्तर - इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है और मेरे लिये कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है तो भी लोकसंग्रह की ओर देखकर मैं सब लोगों पर दया करके कर्मों में ही लगा हुआ हूँ, कर्मों का त्याग नहीं करता। इसलिये किसी मनुष्य को ऐसा समझकर कर्मों का त्याग नहीं कर देना चाहिये कि यदि मेरी भोगों में आसक्ति नहीं है और मुझे कर्मों के फलरूप में किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं है तो मैं कर्म किसलिये करूँ, या मुझे परमपद की प्राप्ति हो चुकी है तब फिर कर्म करने की क्या जरूरत है। क्योंकि अन्य किसी कारण से कर्म करने की आवश्यकता न रहने पर भी मनुष्य को लोकसंग्रह की दृष्टि से कर्म करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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