श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- जो संसार में अच्छे गुण और आचरणों के कारण धर्मात्मा विख्यात हो गया है, जगत् के अधिकांश लोग जिस पर श्रद्धा और विश्वास करते हैं- ऐसे प्रसिद्ध माननीय महात्मा ज्ञानी का वाचक यहाँ ‘श्रेष्ठः’ पद है। प्रश्न- श्रेष्ठ पुरुष जो-जो कर्म करता है, दूसरे मनुष्य भी उन-उन कर्मों को ही किया करते हैं, इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उपर्युक्त महात्मा यदि अपने वर्ण-आश्रम के धर्मों का भलीभाँति अनुष्ठान करता है तो दूसरे लोग भी उसकी देखा-देखी अपने-अपने वर्णाश्रम के धर्म का पालन करने में श्रद्धापूर्वक लगे रहते हैं; इससे सृष्टि की व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहती है, किसी प्रकार की बाधा नहीं आती। किन्तु यदि कोई धर्मात्मा ज्ञानी महात्मा पुरुष अपने वर्णाश्रम के धर्मों का त्याग देता है तो लोगों पर भी यही प्रभाव पड़ता है कि वास्तव में कर्मों में कुछ नहीं रखा है; यदि कर्मों में ही कुछ सार होता तो अमुक महापुरुष उन सबको क्यों छोड़ते- ऐसा समझकर वे उस श्रेष्ठ पुरुष की देखा-देखी अपने वर्ण-आश्रम के लिये विहित नियम और धर्मों का त्याग कर बैठते हैं। ऐसा होने से संसार में बड़ी गड़बड़ मच जाती है और सारी व्यवस्था टूट जाती है। अतएव महात्मा पुरुष को लोकसंग्रह की ओर ध्यान रखते हुए अपने वर्ण-आश्रम के अनुसार सावधानी के साथ यथायोग्य समस्त कर्मों का अनुष्ठान करते रहना चाहिये, कर्मों की अवहेलना या त्याग नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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