श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- ‘तस्मात्’ पद यहाँ पिछले श्लोकों से सम्बन्ध बतलाता है; इसे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यहाँ तक के वर्णन में मैंने जिन-जिन कारणों से स्वधर्म पालन करने की परमावश्यकता सिद्ध की है उन सब बातों पर विचार करने से यह बात प्रकट होती है कि सब प्रकार से स्वधर्म का पालन करने में ही तुम्हारा हित है। इसलिये तुम्हें अपने वर्णधर्म के अनुसार कर्म करना ही चाहिये। प्रश्न- ‘असक्तः’ पद का क्या भाव है? उत्तर- ‘असक्तः’ पद से भगवान् अर्जुन को समस्त कर्मों में और उनके फलरूप समस्त भोगों में आसक्ति का त्याग करके कर्म करने के लिये कहते हैं। आसक्ति का त्याग कहने से कामना का त्याग उसके अन्तर्गत ही आ गया, क्योंकि आसक्ति से ही कामना उत्पन्न होती है।[1] इसलिये यहाँ फलेच्छा का त्याग अलग नहीं बतलाया गया। प्रश्न- ‘सततम्’ पद का क्या भाव है? उत्तर- भगवान् पहले यह बात कह आये हैं कि कोई भी मनुष्य क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता[2]; इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य निरन्तर कुछ-न-कुछ करता ही रहता है। इसलिये यहाँ ‘सततम्’ पद का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम सदा-सर्वदा जितने भी कर्म करो, उन समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति से रहित होकर उनको करो, किसी समय कोई भी कर्म आसक्तिपूर्वक न करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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