श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ज्ञानी का जैसे कर्म करने और न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता, वैसे ही उसका स्थावर जंगम किसी प्राणी से भी किंचिन्मात्र भी कोई प्रयोजन नहीं रहता। अभिप्राय यह है कि जिसका देहाभिमान सर्वथा नष्ट नहीं हो गया है एवं जो परमात्मा की प्राप्ति के लिये साधन कर रहा है, ऐसा साधक यद्यपि अपने सुख-भोग के लिये कुछ भी नहीं चाहता तो भी शरीर निर्वाह के लिये किसी-न-किसी रूप में उसका अन्य प्राणियों से कुछ-न-कुछ स्वार्थ का सम्बन्ध रहता है। अतएव उसके लिये शास्त्र के आज्ञानुसार कर्मों का ग्रहण-त्याग करना कर्तव्य है। किंतु सच्चिदानन्द परमात्मा को प्राप्त ज्ञानी का शरीर में अभिमान न रहने के कारण उसे जीवन की भी परवाह नहीं रहती; ऐसी स्थिति में उसके शरीर का निर्वाह प्रारब्धानुसार अपने-आप होता रहता है। अतएव उसका किसी भी प्राणी से किसी प्रकार के स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता और इसीलिये उसका कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता, वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है। प्रश्न- ऐसी स्थिति में उसके द्वारा कर्म क्यों किये जाते हैं? उत्तर- कर्म किये नहीं जाते, प्रारब्धानुसार लोक-दृष्टि से उसके द्वारा लोकसंग्रह के लिये कर्म होते हैं; वास्तव में उसका उन कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता। इसीलिये उन कर्मों को ‘कर्म’ ही नहीं माना गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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