श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- पूर्व श्लोक में जो यह बात कही गयी है कि ज्ञानी पुरुष को कोई कर्तव्य नहीं रहता, उसी बात को पुष्ट करने के लिये इस वाक्य में उसके लिये कर्तव्य के अभाव का हेतु बतलाते हैं। अभिप्राय यह है कि वह महापुरुष निरन्तर परमात्मा के स्वरूप में सन्तुष्ट रहता है, इस कारण न तो उसे किसी भी कर्म के द्वारा कोई लौकिक या पारलौकिक प्रयोजन सिद्ध करना शेष रहता है और न इसी प्रकार कर्मों के त्याग द्वारा ही कोई प्रयोजन सिद्ध करना शेष रहता है; क्योंकि उसकी समस्त आवश्यकताएँ समाप्त हो चुकी हैं, अब उसे कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता है। इस कारण उसके लिये न तो कर्मों का करना विधेय है और न उनका न करना ही विधेय है, वह शास्त्र के शासन से सर्वथा मुक्त है। यदि उसके मन, इन्द्रियों के संघात रूप द्वारा शरीर द्वारा कर्म किये जाते हैं तो उसे शास्त्र उन कर्मों का त्याग करने के लिये बाध्य नहीं करता और यदि नहीं किये जाते तो उसे शास्त्र कर्म करने के लिये भी बाध्य नहीं करता। अतएव ज्ञानी के लिये यह मानने की कोई आवश्यकता नहीं है कि ज्ञान होने के बाद भी जीवन्मुक्ति का सुख भोगने के लिये ज्ञानी को कर्मों के त्याग या अनुष्ठान करने की आवश्यकता है; क्योंकि ज्ञान होने के अनन्तर मन और इन्द्रियों के आराम रूप तुच्छ सुख से उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता, वह सदा के लिये नित्यानन्द में मग्न हो जाता है एवं स्वयं आनन्द रूप बन जाता है। अतः जो किसी सुख-विशेष की प्राप्ति के लिये अपना ‘ग्रहण’ या ‘त्याग’ रूप कर्तव्य शेष मानता है, वह वास्तव में ज्ञानी नहीं है, किंतु किसी स्थिति विशेष को ही ज्ञान की प्राप्ति समझकर अपने को ज्ञानी मानने वाला है। सत्रहवें श्लोक में बतलाये हुए लक्षणों से युक्त ज्ञानी में ऐसी मान्यता के लिये स्थान नहीं है। इसी बात को सिद्ध करने के लिये भगवान् ने उत्तरगीता में भी कहा है- ज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः। अर्थात् जो योगी ज्ञानरूप अमृत से तृप्त और कृतकृत्य हो गया है, उसके लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं है। यदि कुछ कर्तव्य है तो वह तत्त्व ज्ञानी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1। 22
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