श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा को प्राप्त पुरुष पूर्णकाम हो जाता है, उसके लिये कोई भी वस्तु प्राप्त करने योग्य नहीं रहती तथा किसी भी सांसारिक वस्तु की उसे किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं रहती, वह परमात्मा के स्वरूप में अनन्यभाव से स्थित होकर सदा के लिये तृप्त हो जाता है। प्रश्न - ‘आत्मनि एव सन्तुष्टः’ विशेषण का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा को प्राप्त पुरुष नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है, संसार का कोई बड़े-से-बड़ा प्रलोभन भी उसे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकता, उसे किसी भी हेतु से या किसी भी घटना से किंचिन्मात्र भी असन्तोष नहीं हो सकता, संसार की किसी भी वस्तु से उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता, वह सदा के लिये हर्ष-शोकादि विकारों से सर्वथा अतीत होकर सच्चिदानन्दघन परमात्मा में निरन्तर सन्तुष्ट रहता है। प्रश्न- उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त विशेषणों से युक्त महापुरुष परमात्मा को प्राप्त है, अतएव उसके समस्त कर्तव्य समाप्त हो चुके हैं, वह कृतकृत्य हो गया है; क्योंकि मनुष्य के लिये जितना भी कर्तव्य का विधान किया गया है, उस सबका उद्देश्य केवल मात्र एक परम कल्याण स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करना है; अतएव वह उद्देश्य जिसका पूर्ण हो गया, उसके लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता, उसके कर्तव्य की समाप्ति हो जाती है। प्रश्न- तो क्या ज्ञानी पुरुष कोई भी कर्म नहीं करता? उत्तर- ज्ञानी का मन-इन्द्रियों सहित शरीर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता, इस कारण वह वास्तव में कुछ भी नहीं करता; तथापि लोकदृष्टि में उसके मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा पूर्व के अभ्यास से प्रारब्ध के अनुसार शास्त्रानुकूल कर्म होते रहते हैं। ऐसे कर्म ममता, अभिमान, आसक्ति और कामना से सर्वथा रहित होने के कारण परम पवित्र और दूसरों के लिये आदर्श होते हैं, ऐसा होते हुए भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि ऐसे पुरुष पर शास्त्र का कोई शासन नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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