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तृतीय अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार सृष्टिचक्र की स्थिति यज्ञ पर निर्भर बतलाकर और परमात्मा को यज्ञ में प्रतिष्ठित कहकर अब उस यज्ञरूप स्वधर्म के पालन की अवश्यकर्तव्यता सिद्ध करने के लिये उस सृष्टिचक्र के अनुकूल न चलने वाले की यानी अपना कर्तव्य-पालन न करने वाले की निन्दा करते हैं-
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य: ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।। 16 ।।
हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है ।। 16 ।।
प्रश्न- यहाँ ‘चक्रम्’ पद किसका वाचक है और उसके साथ ‘एवं प्रवर्तितम्’ विशेषण देने का क्या भाव है तथा उसके अनुकूल बरतना क्या है?
उत्तर- चौदहवें श्लोक के वर्णनानुसार ‘चक्रम्’ पद यहाँ सृष्टि-परम्परा का वाचक है, क्योंकि मनुष्य के द्वारा की जाने वाली शास्त्रविहित क्रियाओं से यज्ञ होता है, यज्ञ से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता है, अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं, पुनः उन प्राणियों के ही अन्तर्गत मनुष्य के द्वारा किये हुए कर्मों से यज्ञ और यज्ञ से वृष्टि होती है। इस तरह यह सृष्टि परम्परा सदा से चक्र की भाँति चली आ रही है। यही भाव दिखलाने के लिये ‘चक्रम्’ पद के साथ ‘एवं प्रवर्तितम्’ विशेषण दिया गया है। अपने-अपने वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य का जो स्वधर्म है, जिसके पालन करने का उस पर दायित्व है, उसके अनुसार अपने कर्तव्य का सावधानी के साथ पालन करना ही उस चक्र के अनुसार चलना है। अतएव आसक्ति और कामना का त्याग करके केवल इस सृष्टिचक्र की सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये ही जो योगी अपने कर्तव्य का अनुष्ठान करता है, जिसमें किंचिन्मात्र भी अपने स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता, वह उस स्वधर्मरूप यज्ञ में प्रतिष्ठित परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है।
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