प्रथम अध्याय
सम्बन्ध- दुर्योधन के द्वारा अपने पक्ष के महारथियों की विशेषरूप से पितामह भीष्म की प्रशंसा किये जाने का वर्णन सुनाकर अब संजय उसके बाद की घटनाओं का वर्णन करते हैं-
तस्य संजनयन् हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंखं दध्मौ प्रतापवान् ।। 12 ।।
कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया
।।12।।
प्रश्न- इस श्लोक का क्या भाव है?
उत्तर- भीष्मपितामह कुरुकुल में बाह्लीक को छोड़कर सबसे बड़े थे, कौरवों और पाण्डवों से इनका एक-सा सम्बन्ध था और पितामह के नाते ये दोनों के ही पूज्य थे; इसीलिये संजय ने इनको कौरवों में वृद्ध और पितामह कहा है। अवस्था में बहुत वृद्ध होने पर भी तेज, बल, पराक्रम, वीरता और क्षमता में ये अच्छे-अच्छे वीर युवकों से भी बढ़कर थे; इसी से इन्हें ‘प्रतापवान्’ बतलाया है। ऐसे पितामह भीष्म ने जब द्रोणाचार्य के पास खड़े हुए दुर्योधन को, पाण्डव-सेना देखकर, चकित और चिन्तित देखा; साथ ही यह भी देखा कि वे अपनी चिन्ता को दबाकर योद्धाओं का उत्साह बढ़ाने के लिये अपनी सेना की प्रशंसा कर रहे हैं और द्रोणाचार्य आदि सब महारथियों को मेरी रक्षा करने के लिये अनुरोध कर रहे हैं; तब पितामह ने अपना प्रभाव दिखलाकर उन्हें प्रसन्न करने और प्रधान सेनापति की हैसियत से समस्त सेना में युद्धारम्भ की घोषणा करने के लिये सिंह के समान दहाड़ मारकर बड़े जोर से शंख बजाया।
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