श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- यहाँ ‘अन्न’ शब्द व्यापक अर्थ में है। इसलिये इसका अर्थ केवल गेहूँ, चना आदि अनाजमात्र ही नहीं है; किंतु जिन भिन्न-भिन्न आहार करने योग्य स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों से भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीर आदि की पुष्टि होती है। उन समस्त खाद्य पदार्थों का वाचक यहाँ ‘अन्न’ शब्द है। अतः समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं - इस वाक्य का यह भाव है कि खाद्य पदार्थों से ही समस्त प्राणियों के शरीर में रज और वीर्य आदि बनते हैं, उस रज-वीर्य आदि के संयोग से ही भिन्न-भिन्न प्राणियों की उत्पत्ति होती है तथा उत्पत्ति के बाद उनका पोषण भी खाद्य पदार्थों से ही होता है; इसलिये सब प्रकार के प्राणियों की उत्पत्ति, वृद्धि और पोषण का हेतु अन्न ही है। श्रुति में भी कहा है - ‘अन्नाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते अन्नेन जातानि जीवन्ति’[1] अर्थात् ये सब प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्न से ही जीते हैं। प्रश्न- अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया है कि संसार में स्थूल और सूक्ष्म जितने भी खाद्य पदार्थ हैं, उन सबकी उत्पत्ति में जल ही प्रधान कारण है; क्योंकि स्थूल या सूक्ष्म रूप से जल का सम्बन्ध सभी जगह रहता है और जल का आधार वृष्टि ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तै. उ. 3। 2
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