श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- सिद्ध पुरुष तो संत हैं ही, परंतु इस प्रकरण में संत पद का अर्थ ‘निःस्वार्थ भाव से कर्म करने वाले साधक’ हैं। और सिद्ध पुरुष भी यज्ञ करते हैं; परंतु वे पापों से छूटने के लिये नहीं, वरं स्वाभाविक ही लोकसंग्रहार्थ करते हैं। प्रश्न- यहाँ सब पापों से मुक्त होने का क्या भाव लेना चाहिये? उत्तर- मनुष्य के पूर्व पापों का संचय है, वर्तमान में जीवननिर्वाह के लिये किये जाने वाले वैध अर्थोपार्जन में भी मनुष्य से आनुषंगिक पाप बनते हैं। ‘सर्वारम्भ हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः’[1] के न्याय से हवन, प्रजापालन, युद्ध, खेती, व्यापार और शिल्प आदि प्रत्येक जीवन धारण के कार्य में कुछ-न-कुछ हिंसा होती ही है। गृहस्थ के घर में प्रतिदिन चूल्हे, चक्की, झाड़ू, ओखली और जल रखने के स्थान में हिंसा होती है।[2] इसके सिवा प्रमाद आदि के कारण अन्यान्य प्रकार से भी अनेक पाप बनते रहते हैं। जो पुरुष निःस्वार्थ भाव से केवल लोकसेवा की दृष्टि को सामने रखकर सब जीवों को सुख पहुँचाने के लिये ही पंचमहायज्ञादि करता है और इसी में जीवन धारण की उपयोगिता मानकर अपने न्यायोपार्जित धन से यथाशक्ति यथायोग्य सबकी सेवारूप यज्ञ करके उससे बचे-खुचे अन्न को केवल उनके सेवार्थ जीवनधारण करने के लिये ही प्रसाद रूप से ग्रहण करता है, वह सत्पुरुष भूत और वर्तमान के सब पापों से छूटकर सनातन ब्रह्मपद को प्राप्त हो जाता है[3]; इसीलिये ऐसे साधक को संत कहा गया है। अतः यहाँ सब पापों से मुक्त होने का यही भाव समझना चाहिये। घर में होने वाले नित्य के पाँच पापों से तो वह सकाम पुरुष भी छूट जाता है जो अपने सुखोपभोग की प्राप्ति के लिये शास्त्रविधि के अनुसार कर्म करता है और प्रायश्चित्तरूप नित्य हवन-बलिवैश्वदेव आदि कर्म करके सबका स्वत्व उन्हें दे देता है; पर यहाँ कर्ता के लिये ‘सन्तः’ पद और ‘किल्बिषैः’ के साथ ‘सर्व’ विशेषण आने से यही समझना चाहिये कि इस प्रकार निष्कामभाव से पंचमहायज्ञादि का अनुष्ठान करने वाला संतपुरुष तो भूत एवं वर्तमान के सभी पापों से छूट जाता है। प्रश्न- जो अपने शरीर पोषण के लिये ही पकाते-खाते हैं, उन्हें पापी और उनके भोजन को पाप क्यों बतलाया गया? उत्तर- यहाँ पकाने-खाने के उपलक्ष्य से इन्द्रियों के द्वारा भोगे जाने वाले समस्त भोगों की बात कही गयी है। जो पुरुष इन भोगों का उपार्जन और इनका यज्ञावशिष्ट उपभोग निष्काम भाव से केवल लोक सेवा के लिये करता है, वह तो उपर्युक्त प्रकार के पापों से छूट जाता है और जो केवल सकाम भाव से सबका न्यायोचित भाग देकर उपार्जित भोगों का उपभोग करता है, वह भी पापी नहीं है। परंतु जो पुरुष केवल अपने ही सुख के लिये- अपने ही शरीर और इन्द्रियों के पोषण के लिये भोगों का उपार्जन करता है और अपने ही लिये उन्हें भोगता है, वह पुरुष पाप से पाप उपार्जन करता है और पाप का ही उपभोग करता है; क्योंकि न तो उसकी क्रियाएँ यज्ञार्थ होती हैं और न वह अपने उपार्जन और उपभोग दोनों ही पापमय होने के कारण उसे पापी और उसके भोगों को पाप कहा गया है।[4][5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18। 48
- ↑ कण्डनी पेषणी चुल्ली उसकुम्भी च मार्जनी। पंच सूना गृहस्थस्य वर्तंतेअहरह: सदा॥
- ↑ 4। 31
- ↑ मनु. 3। 118
- ↑ अघं स केवलं भिण्क्ते य: पचत्यात्मकारणात्।
जो मनुष्य अपने ही लिये भोजन पकाता है, वह केवल पाप को ही खाता है।
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