तृतीय अध्याय
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स:।। 12 ।।
यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उन को बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है ।।12।।
प्रश्न- यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे, इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि तुम लोगों को अपने कर्तव्य का पालन करते रहना चाहिये, फिर तुम लोगों से यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता लोग तुमको सदा-सर्वदा सुख भोग और जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक पदार्थ देते रहेंगे, इसमें सन्देह की बात नहीं है; क्योंकि वे लोग अपना कर्तव्यपालन करने के लिये बाध्य हैं।
प्रश्न- उनके द्वारा दिये हुए भोगों को जो मनुष्य उनको बिना दिये ही भोगता है, वह चोर ही है- इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- यहाँ तक प्रजापति के वचनों का अनुवाद कर अब भगवान् उपर्युक्त वाक्य से यह भाव दिखलाते हैं कि इस प्रकार ब्रह्मा जी के उपदेशानुसार वे देवता लोग सृष्टि के आदिकाल से मनुष्यों को सुख पहुँचाने के लिये- उनकी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के निमित्त पशु, पक्षी, औषध, वृक्ष, तृण आदि के सहित सबकी पुष्टि कर रहे हैं और अन्न, जल, पुष्प, फल, धातु आदि मनुष्योपयोगी समस्त वस्तुएँ मनुष्यों को दे रहे हैं; जो मनुष्य उन सब वस्तुओं को उन देवताओं का ऋण चुकाये बिना- उनका न्यायोचित स्वत्व उन्हें अर्पण किये बिना स्वयं अपने काम में लाता है, वह वैसे ही कृतघ्न और चोर होता है, जैसे कोई स्नेहशील माता-पितादि से पाला-पोसा हुआ पुत्र उनकी सेवा न करने से एवं उनके मरने के बाद श्राद्ध-तर्पण आदि न करने से, किसी के द्वारा उपकार पाया हुआ मनुष्य यथा साध्य प्रत्युपकार न करने से अथवा कोई दत्तक पुत्र पिता के द्वारा प्राप्त सम्पत्ति का उपभोग करके माता-पिता की सेवा न करने से कृतघ्न और चोर होता है।
प्रश्न- जबकि देवता लोग मनुष्यों द्वारा सन्तुष्ट किये जाने पर उनको आवश्यक भोग प्रदान करते हैं तो फिर उनसे पाये हुए भोगों को यदि मनुष्य उन्हें वापस न भी दे तो वह चोर कैसे है?
उत्तर- सृष्टि के आरम्भ काल से ही मनुष्य यज्ञ के द्वारा देवताओं को बढ़ाते आये हैं और देवता लोग मनुष्यों को इष्ट भोग प्रदान करते आये हैं। यह परम्परा सृष्टि के आरम्भ से ही चली आती है। इस परम्परागत आदान-प्रदान में जिन मनुष्यों ने पहले यज्ञादि के द्वारा देवताओं को बढ़ाया है और जो बढ़ा रहे हैं, वे तो चोर नहीं है; परंतु दूसरे मनुष्यों के द्वारा बढ़ाये हुए देवताओं से इष्ट भोग प्राप्त करके जो उनके लिये यज्ञादि नहीं करता, उसको चोर बतलाना तो उचित ही है। जैसे किसी दूसरे मनुष्य के द्वारा पुष्ट की हुई गौ का दूध यदि कोई दूसरा ही मनुष्य यह कहकर पीता है कि गौओं की सेवा मनुष्य ही करते हैं और मैं भी मनुष्य हूँ तो वह चोर समझा जाता है- वैसे ही दूसरे मनुष्यों के द्वारा बढ़ाये हुए देवताओं से भोग प्राप्त करके उनको बिना दिये भोगने वाला मनुष्य भी चोर माना जाता है।
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