श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- ‘सर्वः’ पद समस्त प्राणियों का वाचक है होते हुए भी यहाँ उसे खास तौर पर मनुष्य समुदाय का वाचक समझना चाहिये; क्योंकि कर्मों में मनुष्य का ही अधिकार है। और पूर्व जन्मों के किये हुए कर्मों के संस्कारजनित स्वभाव के परवश होकर जो कर्मों में प्रवृत्त होना है, यही गुणों के वश होकर कर्म करने के लिये बाध्य होना है। प्रश्न- ‘गुणैः’ पद के साथ ‘प्रकृतिजैः’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- सांख्यशास्त्र में गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति माना गया है, परंतु भगवान् के मत में तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं- इस बात को स्पष्ट करने के लिये ही भगवान् ने यहाँ ‘गुणैः’ पद के साथ ‘प्रकृतिजैः’ विशेषण दिया है। इसी तरह कहीं ‘प्रकृतिसम्भवान्’[1], कहीं ‘प्रकृतिजान्’[2], कहीं ‘प्रकृतिसम्भवाः’[3]और कहीं ‘प्रकृतिजैः’[4] विशेषण देकर अन्यत्र भी जगह-जगह गुणों को प्रकृति का कार्य बतलाया है। प्रश्न- यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द किसका वाचक है? उत्तर- समस्त गुणों और विकारों के समुदायरूप इस जड दृश्य-जगत् की कारणभूता जो भगवान् की अनादि सिद्ध मूल प्रकृति है- जिसको अव्यक्त, अव्याकृत और महद्ब्रह्म भी कहते हैं- उसी का वाचक यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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