श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- जो ज्ञानयोग की सिद्धि यानी परिपक्व स्थिति है, जिसका वर्णन पूर्व श्लोक की व्याख्या में ‘ज्ञाननिष्ठा’ के नाम से किया गया है तथा जिसका फल तत्त्वज्ञान की प्राप्ति है, उसका वाचक यहाँ ‘सिद्धिम्’ पद है। इस स्थिति पर पहुँचकर साधक ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है, उसकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा का किंचिन्मात्र भी भेद नहीं रहता, वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है; इसलिये इस स्थिति को ‘सिद्धि’ कहते हैं। यह ज्ञानयोग रूप सिद्धि अपने वर्णाश्रम के अनुसार करने योग्य कर्मों में कर्तापन का अभिमान त्यागकर तथा समस्त भोगों में ममता, आसक्ति और कामना से रहित होकर निरन्तर अभिन्नभाव से परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करने से ही सिद्ध होती है, कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देने मात्र से नहीं मिलती; क्योंकि अहंता, ममता और आसक्ति का नाश हुए बिना मनुष्य की अभिन्न भाव से परमात्मा में स्थिर स्थिति नहीं हो सकती। बल्कि मन, बुद्धि और शरीर द्वारा होने वाली किसी भी क्रिया का अपने को कर्ता न समझकर उनका द्रष्टा- साक्षी रहने से[1] उपर्युक्त स्थिति प्राप्त हो जाती है। इसलिये सांख्ययोगी को भी वर्णाश्रमोचित कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की चेष्टा न करके उनमें कर्तापन, ममता, आसक्ति और कामना से रहित हो जाना चाहिये- यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह बात कही गयी है कि ‘केवल कर्मों के त्यागमात्र से सिद्धि प्राप्त नहीं होती।’ प्रश्न- ‘अनारम्भात्’ और ‘सन्न्यसनात्’- इन दोनों पदों का एक ही अभिप्राय है या भिन्न-भिन्न? यदि भिन्न-भिन्न है तो दोनों में क्या भेद है? उत्तर- यहाँ भगवान् ने दोनों पदों का प्रयोग भिन्न-भिन्न अभिप्राय से किया है; क्योंकि ‘अनारम्भात्’ पद से तो कर्मयोगी के लिये विहित-कर्मों के न करने की योगनिष्ठा की प्राप्ति में बाधक बतलाया है; किंतु ‘सन्न्यसनात्’ पद से सांख्ययोगी के लिये कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देना सांख्यनिष्ठा की प्राप्ति में बाधक नहीं बतलाया गया, केवल यही बात कही गयी है कि उसी से उसे सिद्धि नहीं मिलती, सिद्धि की प्राप्ति के लिये उसे कर्तापन का त्याग करके सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभेदभाव से स्थित होना आवश्यक है। अतएव उसके लिये कर्मों का स्वरूपतः त्याग करना मुख्य बात नहीं है, भीतरी त्याग ही प्रधान है और कर्मयोगी के लिये स्वरूप से कर्मों का त्याग न करना विधेय है- यही दोनों पदों के भावों में भेद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 14। 19
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