श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर - जिन वचनों में कोई साधन निश्चित करके स्पष्ट रूप से नहीं बतलाया गया हो, जिनमें कई तरह की बातों का सम्मिश्रण हो, उनका नाम ‘व्यामिश्र’-‘मिले हुए वचन’ हैं। ऐसे वचनों से श्रोता की बुद्धि किसी एक निश्चय पर न पहुँचकर मोहित हो जाती है। भगवान् के वचनों का तात्पर्य न समझने के कारण अर्जुन को भी भगवान् के वचन मिले हुए-से प्रतीत होते थे; क्योंकि ‘बुद्धियोग की अपेक्षा कर्म अत्यन्त निकृष्ट है, तू बुद्धि का ही आश्रय ग्रहण कर’[1] इस कथन से तो अर्जुन ने समझा कि भगवान् ज्ञान की प्रशंसा और कर्मों की निन्दा करते हैं और मुझे ज्ञान का आश्रय लेने के लिये कहते हैं तथा ‘बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य-पापों को यहीं छोड़ देता है’[2] इस कथन से यह समझा कि पुण्य-पापरूप समस्त कर्मों का स्वरूप से त्याग करने वाले को भगवान् ‘बुद्धियुक्त’ कहते हैं। इसके विपरीत ‘तेरा कर्म में अधिकार है’[3], ‘तू योग में स्थित होकर कर्म कर’[4] इन वाक्यों से अर्जुन ने यह बात समझी कि भगवान् मुझे कर्मों में नियुक्त कर रहे हैं; इसके सिवा ‘निस्त्रैगुण्यो भव’, ‘आत्मवान् भव’[5] आदि वाक्यों से कर्म का त्याग और ‘तस्माद्युध्यस्व भारत’[6], ‘ततो युद्धाय युज्यस्व’[7], ‘तस्माद्योगाय युज्यस्व’[8] आदि वचनों से उन्होंने कर्म की प्रेरणा समझी। इस प्रकार उपर्युक्त वचनों में उन्हें विरोध दिखायी दिया। इसलिये उपर्युक्त वाक्य में उन्होंने दो बार ‘इव’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि यद्यपि वास्तव में आप मुझे स्पष्ट और अलग-अलग ही साधन बतला रहे हैं, कोई बात मिलाकर नहीं कह रहे हैं तथा आप मेरे परमप्रिय और हितैषी हैं, अतएव मुझे मोहित भी नहीं कर रहे हैं वरं मेरे मोह का नाश करने के लिये ही उपदेश दे रहे हैं; किंतु अपनी अज्ञता के कारण मुझे ऐसा ही प्रतीत हो रहा है कि मानो आप मुझे परस्पर-विरुद्ध और मिले हुए-से वचन कहकर मेरी बुद्धि को मोह में डाल रहे हैं। प्रश्न- यदि अर्जुन को दूसरे अध्याय के उनचासवें और पचासवें श्लोकों को सुनते ही उपर्युक्त भ्रम हो गया था, तो तिरपनवें श्लोक में उस प्रकरण के समाप्त होते ही उन्होंने अपने भ्रम निवारण के लिये भगवान् से पूछ क्यों नहीं लिया? बीच में इतना व्यवधान क्यों पड़ने दिया? उत्तर- यह ठीक है कि अर्जुन को वहीं शंका हो गयी थी, इसलिये चौवनवें श्लोक में ही उन्हें इस विषय में पूछ लेना चाहिये था; किंतु तिरपनवें श्लोक में जब भगवान् ने यह कहा कि ‘जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदल से तर जायगी और परमात्मा के स्वरूप में स्थिर हो जायगी तब तुम परमात्मा में संयोगरूप योग को प्राप्त होओगे’; तब उसे सुनकर अर्जुन के मन में परमात्मा को प्राप्त स्थिरबुद्धियुक्त पुरुष के लक्षण और आचरण जानने की प्रबल इच्छा जाग उठी। इसी कारण उन्होंने अपनी इस पहली शंका को मन में रखकर, पहले स्थितप्रज्ञ के विषय में प्रश्न कर दिये और उनका उत्तर मिलते ही इस शंका को भगवान् के सामने रख दिया। यदि वे पहले इस प्रसंग को छेड़ देते तो स्थितप्रज्ञसम्बन्धी बातों में इससे भी अधिक व्यवधान पड़ जाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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