द्वितीय अध्याय
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।। 67 ।।
क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।। 67 ।।
प्रश्न- ‘हि’ पद का क्या भाव है?
उत्तर- पूर्व श्लोक में यह बात कही गयी है कि अयुक्त मनुष्य में निश्चल बुद्धि, भावना, शान्ति और सुख नहीं होते; उसी बात को स्पष्ट करने के लिये उन सबके न होने का कारण इस श्लोक में बतलाया गया है- इसी भाव का द्योतक हेतु वाचक ‘हि’ पद है।
प्रश्न- जल में चलने वाली नौका और वायु का दृष्टान्त देकर यहाँ क्या बात कही गयी है?
उत्तर- दृष्टान्त में नौका के स्थान में बुद्धि है, वायु के स्थान में जिसके साथ मन रहता है, वह इन्द्रिय है, जलाशय के स्थान में संसार रूप समुद्र है और जल के स्थान में शब्दादि समस्त विषयों का समुदाय है। जल में अपने गन्तव्य स्थान की ओर जाती हुई नौका को प्रबल वायु दो प्रकार से विचलित करती है- या तो उसे पथ भ्रष्ट करके जल की भीषण तरंगों में भटकाती है या अगाध जल में डुबो देती है; किंतु यदि कोई चतुर मल्लाह उस वायु की क्रिया को अपने अनुकूल बना लेता है तो फिर वह वायु उस नौका को पथ भ्रष्ट नहीं कर सकती, बल्कि उसे गन्तव्य स्थान पर पहुँचाने में सहायता करती है। इसी प्रकार जिसके मन-इन्द्रिय वश में नहीं हैं, ऐसा मनुष्य यदि अपनी बुद्धि को परमात्मा के स्वरूप में निश्चल करना चाहता है तो भी उसकी इन्द्रियाँ उसके मन को आकर्षित करके उसकी बुद्धि को दो प्रकार से विचलित करती हैं। इन्द्रियों का बुद्धि रूप नौका को परमात्मा से हटाकर नाना प्रकार के भोगों की प्राप्ति का उपाय सोचने में लगा देना, उसे भीषण तरंगों में भटकाना है और पापों में प्रवृत्त करके उसका अधःपतन करा देना, उसे डुबो देना है। परंतु जिसके मन और इन्द्रिय वश में रहते हैं उसकी बुद्धि को वे विचलित नहीं करते वरं बुद्धि रूप नौका को परमात्मा के पास पहुँचाने में सहायता करते हैं। चौंसठवें और पैंसठवें श्लोकों में यही बात कही गयी है।
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