श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- समस्त इन्द्रियों को वश में करने की आवश्यकता दिखलाने के लिये ‘सर्वाणि’ विशेषण दिया गया है, क्योंकि वश में न की हुई एक इन्द्रिय भी मनुष्य के मन-बुद्धि को विचलित करके साधन में विघ्न उपस्थित कर देती है।[1] अतएव परमात्मा की प्राप्ति चाहने वाले पुरुष को सम्पूर्ण इन्द्रियों को ही भली-भाँति वश में करना चाहिये। प्रश्न- ‘समाहितचित्त’ और ‘भगवतपरायण’ होकर ध्यान में बैठने के लिये कहने का क्या भाव है? उत्तर - इन्द्रियों का संयम हो जाने पर भी यदि मन वश में नहीं होता तो मन के द्वारा विषयचिन्तन होकर साधक का पतन हो जाता है और मन-बुद्धि के लिये परमात्मा का आधार न रहने से वे स्थिर नहीं रह सकते। इस कारण समाहितचित्त और भगवत्परायण होकर परमात्मा के ध्यान में बैठने के लिये कहा गया है। छठे अध्याय के ध्यान योग के प्रसंग में भी यही बात कही गयी है।[2] इस प्रकार मन और इन्द्रियों को वश में करके परमात्मा के ध्यान में लगे हुए मनुष्य की बुद्धि स्थिर हो जाती है और उसको शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। प्रश्न- जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- श्लोक के पूर्वार्द्ध में इन्द्रियों को वश में करके संयत चित्त और भगवत्परायण होकर ध्यान में बैठने के लिये कहा गया, उसी कथन के हेतु रूप से इस उत्तरार्द्ध का प्रयोग हुआ है। अतः इसका यह भाव समझना चाहिये कि ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके मन और इन्द्रियों को संयमित कर बुद्धि को परमात्मा के स्वरूप में स्थिर करना चाहिये, क्योंकि जिसके मन सहित इन्द्रियाँ वश में की हुई होती हैं उसी साधक की बुद्धि स्थिर होती है। जिसके मन सहित इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रह सकती। अतः मन और इन्द्रियों को वश में करना साधक के लिये परम आवश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज