द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- आसक्ति का नाश और इन्द्रियसंयम नहीं होने से क्या हानि है? इस पर कहते हैं-
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।। 60 ।।
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथनस्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं ।।60।।
प्रश्न- ‘हि’ पद का यहाँ क्या भाव है?
उत्तर- ‘हि’ पद यहाँ देहली-दीपकन्याय से इस श्लोक का पूर्वश्लोक से तथा अगले श्लोक के साथ भी सम्बन्ध बतलाता है। पिछले श्लोक में यह बात कही गयी कि विषयों का केवल स्वरूप से त्याग करने वाले पुरुष के विषय ही निवृत्त होते हैं, उनमें उसका राग निवृत्त नहीं होता। इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि राग के निवृत्त न होने से क्या हानि है? इसके उत्तर में इस श्लोक में यह बात कही गयी है कि जब तक मनुष्य की विषयों में आसक्ति बनी रहती है, तब तक उस आसक्ति के कारण उसकी इन्द्रियाँ उसे बलात् विषयों में प्रवृत्त कर देती हैं; अतएव उसकी मनसहित बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में स्थिर नहीं हो पाती और चूँकि इन्द्रियाँ इस प्रकार बलात् मनुष्य के मनको हर लेती हैं, इसीलिये अगले श्लोक में भगवान् कहते हैं कि इन सब इन्द्रियों को वश में करके मनुष्य को समाहितचित्त एवं मेरे परायण होकर ध्यान में स्थित होना चाहिये। इस प्रकार ‘हि’ पद से पिछले और अगले दोनों श्लोकों के साथ इस श्लोक का सम्बन्ध बतलाया गया है।
प्रश्न- ‘इन्द्रियाणि’ पद के साथ ‘प्रमाथीनि’ विशेषण के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर- ‘प्रमाथीनि’ विशेषण का प्रयोग करके यह दिखलाया गया है कि जब तक मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं हो जातीं और जब तक उसकी इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति रहती है, तब तक इन्द्रियाँ मनुष्य के मन को बार-बार विषयसुख का प्रलोभन देकर उसे स्थिर नहीं होने देतीं, उसका मन्थन ही करती रहती हैं।
प्रश्न- यहाँ ‘ययतः’ और ‘विपश्चितः’ - इन दोनों विशेषणों के सहित ‘पुरुषस्य’ पद किस मनुष्य का वाचक है और ‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर- जो पुरुष शास्त्रों के श्रवण-मनन से और विवेक-विचार से विषयों के दोषों को जान लेता है और उनसे इन्द्रियों को हटाने का यत्न भी करता रहता है, किंतु जिसकी विषयासक्ति का नाश नहीं हो सका है, इसी कारण जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं ऐसे बुद्धिमान् यत्नशील साधक का वाचक यहाँ ‘यततः’ और ‘विपश्चितः’- इन दोनों विशेषणों के सहित ‘पुरुषस्य’ पद है; इनके सहित ‘अपि’ पद का प्रयोग करके यहाँ यह भाव दिखलाया है कि जब ये प्रमथनशील इन्द्रियाँ विषयासक्ति के कारण ऐसे बुद्धिमान् विवेकी यत्नशील मनुष्य के मन को भी बलात् विषयों में प्रवृत्त कर देती हैं तब साधारण लोगों की बात ही क्या है। अतएव स्थितप्रज्ञ-अवस्था प्राप्त करने की इच्छा वाले मनुष्य को आसक्ति का सर्वथा त्याग करके इन्द्रियों को अपने वश में करने का विशेष प्रयत्न करना चाहिये।
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