श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- संसार में जो भोजन का परित्याग कर देता है, उसे ‘निराहार’ कहते हैं; परंतु यहाँ ‘निराहारस्य’ पद का प्रयोग इस अर्थ में नहीं है; क्योंकि यहाँ ‘विषयाः’ पद में बहुवचन का प्रयोग करके समस्त विषयों के निवृत्त हो जाने की बात कही गयी है। भोजन के त्याग से तो केवल जिह्वा इन्द्रिय के विषय की ही निवृत्ति होती है; शब्द, स्पर्श, रूप और गन्ध की निवृत्ति नहीं होती। अतः यह समझना चाहिये कि जिस इन्द्रिय का जो विषय है, वही उसका आहार है- इस दृष्टि से जो सभी इन्द्रियों के द्वारा समस्त इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण करना छोड़ देता है, ऐसे देहाभिमानी मनुष्य का वाचक यहाँ ‘निराहारस्य’ विशेषण के सहित ‘देहिनः’ पद है। प्रश्न- ऐसे मनुष्य के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि विषयों का परित्याग कर देने वाला अज्ञानी भी ऊपर से तो कछुए की भाँति अपनी इन्द्रियों को विषयों से हटा सकता है; किंतु उसकी उन विषयों में आसक्ति बनी रहती है, आसक्ति का नाश नहीं होता। इस कारण उसकी इन्द्रियों की वृत्तियाँ विषयों की ओर दौड़ती रहती हैं और उसके अन्तःकरण को स्थिर नहीं होने देतीं। निम्नलिखित उदाहरणों से यह बात ठीक समझ में आ सकती है। रोग या मृत्यु के भय से अथवा अन्य किसी हेतु से विषयासक्त मनुष्य किसी एक विषय का या अधिक विषयों का त्याग करदेता है। वह जैसे जब जिस विषय का परित्याग कर देता है, तब उस विषय की निवृत्ति हो जाती है, वैसे ही समस्त विषयों का त्याग करने से समस्त विषयों की निवृत्ति भी हो सकती है; परंतु वह निवृत्ति हठ, भय या अन्य किसी कारण से आसक्ति रहते ही होती है, ऐसी निवृत्ति से वस्तुतः आसक्ति की निवृत्ति नहीं हो सकती। दम्भी मनुष्य लोगों को दिखलाने के लिये किसी समय जब बाहर से दसों इन्द्रियों के शब्दादि विषयों का परित्याग कर देता है तब ऊपर से तो विषयों की निवृत्ति हो जाती है, परंतु आसक्ति रहने के कारण मन के द्वारा वह इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है[1]; अतः उसकी आसक्ति पूर्ववत् ही बनी रहती है। भौतिक सुखों की कामना वाला मनुष्य अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति के लिये या अन्य किसी प्रकार के विषय-सुख की प्राप्ति के लिये ध्यानकाल में या समाधि-अवस्था में दसों इन्द्रियों के विषयों का ऊपर से भी त्याग कर देता है और मन से भी उनका चिन्तन नहीं करता तो भी उन भोगों में उसकी आसक्ति बनी रहती है, आसक्ति का नाश नहीं होता। इस प्रकार स्वरूप से विषयों का परित्याग कर देने पर विषय तो निवृत्त हो सकते हैं, पर उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3। 6
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