द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- ‘स्थिरबुद्धि वाला योगी कैसे बोलता है?’ इस दूसरे प्रश्न का उत्तर समाप्त करके अब भगवान् ‘वह कैसे बैठता है?’ इस तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए यह दिखलाते हैं कि स्थितप्रज्ञ पुरुष की इन्द्रियों का सर्वथा उसके वश में हो जाना और आसक्ति से रहित होकर अपने-अपने विषयों से उपरत हो जाना ही स्थितप्रज्ञ पुरुष का बैठना है-
यद संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। 58 ।।
और कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए) ।। 58 ।।
प्रश्न- कछुए की भाँति इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेना क्या है?
उत्तर- जिस प्रकार कछुआ अपने समस्त अंगों को सब ओर से संकुचित करके स्थिर हो जाता है, उसी प्रकार समाधिकाल में जो वश में की हुई समस्त इन्द्रयों की वृत्तियों को इन्द्रियों के समस्त भोगों से हटा लेना है, किसी भी इन्द्रिय को किसी भी भोग की ओर आकर्षित न होने देना तथा उन इन्द्रियों में मन और बुद्धि को विचलित करने की शक्ति न रहने देना है- यही कछुए की भाँति इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से हटा लेना है। ऊपर से इन्द्रियों के स्थानों को बंद करके स्थूल विषयों से इन्द्रियों को हटा लेने पर भी इन्द्रियों की वृत्तियाँ विषयों की ओर दौड़ती रहती हैं, इसी कारण साधारण मनुष्य स्वप्न में और मनोराज्य में इन्द्रियों द्वारा सूक्ष्म विषयों का उपभोग करता रहता है; यहाँ ‘सर्वशः’ पद का प्रयोग करके इस प्रकार के विषयोंपभोग से भी इन्द्रियों को सर्वथा हटा लेने की बात कही गयी है।
प्रश्न- उसकी बुद्धि स्थिर है- इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया है कि जिसकी इन्द्रियाँ सब प्रकार से ऐसी वश में की हुई हैं कि उनमें मन और बुद्धि को विषयों की ओर आकर्षित करने की जरा भी शक्ति नहीं रह गयी है और इस प्रकार से वश में की हुई अपनी इन्द्रियों को जो सर्वथा विषयों से हटा लेता है, उसी की बुद्धि स्थिर रहती है। जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रह सकती; क्योंकि इन्द्रियाँ मन और बुद्धि को बलात् विषय-सेवन में लगा देती हैं।
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