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प्रथम अध्याय
प्रश्न- भीष्म कौन थे?
उत्तर- भीष्म राजा शान्तनु के पुत्र थे। भागीरथी गंगा जी से इनका जन्म हुआ था। ये ‘द्यो’ नामक नवम वसु के अवतार थे।[1] इनका पहला नाम देवव्रत था। इन्होंने सत्यवती के साथ अपने पिता का विवाह करवाने के लिये सत्यवती के पालनकर्ता पिता के आज्ञानुसार पूर्ण युवावस्था में ही स्वयं जीवनभर कभी विवाह न करने तथा राज्यपद-त्याग की भीषण प्रतिज्ञा कर ली थी; इसी भीषण प्रतिज्ञा के कारण इनका नाम भीष्म पड़ गया। पिता के सुख के लिये इन्होंने प्रायः मनुष्यमात्र के परम लोभनीय स्त्री-सुख और राज्य-सुख का सर्वथा त्याग कर दिया। इससे परम प्रसन्न होकर इनके पिता शान्तनु ने इन्हें यह वरदान दिया कि तुम्हारी इच्छा के बिना मृत्यु भी तुम्हें मार सकेगी। ये बालब्रह्मचारी, अत्यन्त तेजस्वी, शस्त्र-शास्त्र दोनों के पूर्ण पारदर्शी और अनुभवी, महानज्ञानी, महान् वीर तथा दृढ़निश्चयी महापुरुष थे।
इनमें शौर्य, वीर्य, त्याग, तितिक्षा, क्षमा, दया, शम, दम, सत्य, अहिंसा, सन्तोष, शान्ति, बल, तेज, न्यायप्रियता, नम्रता, उदारता, लोकप्रियता, स्पष्टवादिता, साहस, ब्रह्मचर्य, विरति, ज्ञान, विज्ञान, मातृ-पितृ-भक्ति और गुरु-सेवन आदि प्रायः सभी सद्गुण पूर्णरूप से विकसित थे। भगवान् की भक्ति से तो इनका जीवन ओतप्रोत था। ये भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप और तत्त्व को भली-भाँति जानने वाले और उनके एकनिष्ठ पूर्ण श्रद्धासम्पन्न और परमप्रेमी भक्त थे। महाभारत-युद्ध में इनकी समानता करने वाला दूसरा कोई भी वीर नहीं था। इन्होंने दुर्योधन के सामने प्रतिज्ञा की थी कि मैं पाँचों पाण्डवों को तो कभी नहीं मारूँगा, परंतु प्रतिदिन दस हजार योद्धाओं को मारता रहूँगा।[2] इन्होंने कौरव-पक्ष में प्रधान सेनापति के पद पर रहकर दस दिनों तक घोर युद्ध किया तदन्तर शरशय्या पर पड़े-पड़े सबको मान् ज्ञान का उपदेश देकर उत्तराण्या आ जाने के बाद स्वेच्छा से देह त्याग किया।
प्रश्न- कर्ण कौन थे?
उत्तर- कर्ण कुन्ती के पुत्र थे, सूर्यदेव के प्रभाव से कुन्ती की कुमारी अवस्था में ही इनका जन्म हो गया था। कुन्ती ने इन्हें पेटी में रखकर नदी में डाल दिया था, परंतु भाग्यवश इनकी मृत्यु नहीं हुई और बहते-बहते वह पेटी हस्तिनापुर आ गयी। अधिरथ नामक सूत इन्हें अपने घर ले गया और उसकी पत्नी राधा ने इनका पालन-पोषण किया और ये उन्हीं के पुत्र माने जाने लगे। कवच और कुण्डलरूपी धन के साथ ही इनका जन्म हुआ था, इससे अधिरथ ने इनका नाम ‘वसुषेण’ रखा था। इन्होंने द्रोणाचार्य और परशुराम जी से शस्त्रास्त्रविद्या सीखी थी, ये शास्त्र और शस्त्र दोनों के ही बड़े पण्डित और अनुभवी थे। शस्त्र-विद्या और युद्धकला में ये अर्जुन के समान थे। दुर्योधन ने इन्हें अंगदेश का राजा बना दिया था। दुर्योधन के साथ इनकी प्रगाढ़ मैत्री थी और ये तन-मन से सदा उनके हितचिनतन में लगे रहते थे। यहाँ तक कि माता कुन्ती और भगवान् श्रीकृष्ण के समझाने पर भी इन्होंने दुर्योधन को छोड़कर पाण्डव-पक्ष में आना स्वीकार नहीं किया। इनकी दानशीलता अद्वितीय थी, ये सदा सूर्यदेव की उपासना किया करते थे। उस समय इनसे कोई कुछ भी माँगता, ये सहर्ष दे देते थे। एक दिन देवराज इन्द्र ने अर्जुन के हितार्थ ब्राह्मण का वेष धरकर इनके शरीर के साथ लगे हुए नैसर्गिक कवच-कुण्डलों को माँग लिया। इन्होंने बड़ी ही प्रसन्नता के साथ उसी क्षण कवच-कुण्डल उतार दिये। उसके बदले में इन्द्र ने उन्हें एक वीरघातिनी अमोघ शक्ति प्रदान की थी, कर्ण ने युद्ध के समय उसी के द्वारा भीमसेन के वीर पुत्र घटोत्कच का वध किया था। द्रोणाचार्य के बाद महाभारत युद्ध में दो दिनों तक प्रधान सेनापति रहकर ये अर्जुन के हाथ से मारे गये थे।
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