श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- जिसमें ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करके समबुद्धिपूर्वक कर्तव्य-कर्मों का अनुष्ठान किया जाता है, उस कर्मयोग का वाचक यहाँ ‘बुद्धियोगात्’ पद है। क्योंकि उनतालीसवें श्लोक में ‘योगे त्विमां शृणु’ अर्थात् अब तुम मुझसे इस बुद्धि को योग में सुनो, यह कहकर भगवान् ने कर्मयोग का वर्णन आरम्भ किया है, इस कारण यहाँ ‘बुद्धियोगात्’ पद का अर्थ ‘ज्ञानयोग’ मानने की गुंजाइश नहीं है। इसके सिवा इस श्लोक में फल चाहने वालों को कृपण बतलाया गया है और अगले श्लोक में बुद्धियुक्त पुरुष की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग के लिये आज्ञा दी गयी है और यह कहा गया है कि बुद्धियुक्त मनुष्य कर्मफल का त्याग करके ‘अनामय’ पद को प्राप्त हो जाता है[1]; इस कारण भी यहाँ ‘बुद्धियोगात्’ पद का प्रकरण विरुद्ध ‘ज्ञानयोग’ अर्थ मानना नहीं बन सकता; क्योंकि ज्ञानयोगी के लिये यह कहना नहीं बनता कि वह कर्मफल का त्याग करके अनामय पद को प्राप्त होता है, वह तो अपने को कर्म का कर्ता ही नहीं समझता, फिर उसके लिये फल त्याग की बात ही कहाँ रह जाती है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2। 51
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