श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: ।
उत्तर - भगवान् श्रीकृष्ण के गुण, प्रभाव, लीला, ऐश्वर्य, महिमा, नाम और स्वरूप का श्रवण, मनन, कीर्तन, दर्शन और स्पर्श आदि करने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश हो जाता है; उनके साथ किसी प्रकार का भी सम्बन्ध हो जाने से वे मनुष्य के समस्त पापों को, अज्ञान को और दुःख को हरण कर लेते हैं तथा वे अपने भक्तों के मन को चुराने वाले हैं। इसलिये उन्हें ‘हरि’ कहते हैं। प्रश्न - ‘तत्’ और ‘अति अदभुतम्’ विशेषणों के सहित ‘रूपम्’ पद भगवान् के किस रूप् का वाचक हैं? उत्तर - जिस अत्यन्त आश्चर्यमय दिव्य विश्वरूप का भगवान् ने अर्जुन को दर्शन कराया था और जिसके दर्शन का दर्शन का महत्त्व भगवान् ने ग्यारहवें अध्याय के सैंतालीसवें और अड़तालीसवें श्लोकों में स्वयं बतलाया है, उसी विराट्स्वरूप का वाचक यहाँ ‘तत्’ और ‘अति अद्भुतम्’ विशेषणों के सहित ‘रूपम्’ पद है। प्रश्न - उसे स्वरूप् को पुनः-पुनः स्मरण करके मुझे महान् आश्चर्य होता है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर - इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि भगवान् का वह रूप मेरे चित्त से उतरता ही नहीं, उसे मैं बार-बार स्मरण करता रहता हूँ और मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि भगवान् के अतिशय दुर्लभ उस दिव्य रूप का दर्शन मुझे कैसे हो गया। मेरा तो ऐसा कुछ भी पुण्य नहीं था जिससे मुझे ऐसे रूप के दर्शन हो सकते। अहो! इसमें केवलमात्र भगवान् की अहैतु की दया ही कारण है। साथ ही उस रूप के अत्यन्त अद्भुत दृश्यों को और घटनाओं को याद कर-करके भी मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि अहो! भगवान् की कैसी विचित्र योगशक्ति है। प्रश्न - मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर - इससे यह भाव दिखलाया गया है कि मुझे केवल आश्चर्य ही नहीं होता है, उसे बार-बार याद करके मैं हर्ष और प्रेम में विह्वल भी हो रहा हूँ; मेरे आनन्द का पारावार नहीं है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज