श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- उपर्युक्त प्रकार से समस्त कर्मों को भगवान् में समर्पण करके बारहवें अध्याय के छठे श्लोक में, नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में तथा इसी अध्याय के सत्तावनवें श्लोक में कहे हुए प्रकार से भगवान् को ही अपना परम प्राप्य, परम गति, परमाधार, परम प्रिय, परम हितैषी, परम सुहृद्, परम आत्मीय तथा भर्ता, स्वामी, संरक्षक समझकर, उठते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते, सोते-जागते और हरेक प्रकार से उनकी आज्ञाओं का पालन करते समय परम श्रद्धापूर्वक अनन्यप्रेम से नित्य-निरन्तर उनका चिन्तन करते रहना और उनके विधान में सदा ही सन्तुष्ट रहना एवं सब प्रकार से केवल मात्र एक भगवान् पर ही भक्त प्रह्लाद की भाँति निर्भर रहना एकमात्र परमेश्वर की शरण में चला जाना है। प्रश्न- मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर - शुभाशुभ कर्मों का फलरूप जो कर्मबन्धन है- जिससे बँधा हुआ मनुष्य जन्म-जन्मान्तर से नाना योनियों में घूम रहा है, उस कर्मबन्धन का वाचक यहाँ ‘पाप’ है और उस कर्मबन्धन से मुक्त कर देना ही पापों से मुक्त कर देना है। इसलिये तीसरे अध्याय के इकतीसवें श्लोक में ‘कर्मभिः मुच्यन्ते’ से, बारहवें अध्याय के सातवें श्लोक में ‘मृत्युसंसारसागरात् समुद्धर्ता भवामि’ से और इस अध्याय के अट्ठावनवें श्लोक में ‘मत्प्रसादात् सर्वदुर्गाणि तरिष्यसि’ से जो बात कही गयी है- वही बात यहाँ ‘मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा, इस वाक्य से कही गयी है। प्रश्न- ‘मा शुचः’ अर्थात् तू शोक मत कर, इस इथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से भगवान् ने अर्जुन को आश्वासन देते हुए गीता के उपदेश का उपसंहार किया है।तथा दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में ‘अशोच्यान्’ पद से जिस उपदेश का उपक्रम किया था, उसका ‘मा शुचः’ पद से उपसंहार करके यह दिखलाया है कि दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में तुम मेरी शरणागति स्वीकार कर ही चुके हो, अब पूर्णरूप से शरणागत होकर तुम कुछ भी चिन्ता न करो और शोक का सर्वथा त्याग करके सदा-सर्वदा मुझ परमेश्वर पर निर्भर हो रहो। यह शोक का सर्वथा अभाव और भगवत्साक्षात्कार ही गीता का मुख्य तात्पर्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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