श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
उत्तर- वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य के लिये जो-जो कर्म कर्तव्य बतलाये गये हैं; बारहवें अध्याय के छठे श्लोक में ‘सर्वाणि’ विशेषण के सहित ‘कर्माणि’ पद से और इस अध्याय के सत्तावनवें श्लोक में ‘सर्वकर्माणि’ पद से जिनका वर्णन किया गया है- उन शास्त्रविहित समस्त कर्मों का वाचक यहाँ ‘सर्वधर्मान’ पद है। उन समस्त कर्मों का जो उन दानों श्लोकों की व्याख्या में बतलाये हुए प्रकार से भगवान् में समर्पण कर देना है, वही उनका ‘त्याग’ है क्योंकि भगवान् इस अध्याय में त्याग का स्वरूप बतलाते समय सातवें श्लोक में स्पष्ट कह चुके हैं कि नियत कर्मों का स्वरूप से त्याग करना न्यायसंगत नहीं है; इसलिये उनका जो मोहपूर्वक त्याग है, वह तामस त्याग है। अतः यहाँ ‘परित्यज्य’ पद से समस्त कर्मों का स्वरूप से त्याग मानना नहीं बन सकता। इसके सिवा अर्जुन को भगवान् ने क्षात्रधर्म-रूप युद्ध का परित्याग न करने के लिये एवं समस्त कर्मों को भगवान् के अर्पण करके युद्ध करने के लिये जगह-जगह आज्ञा दी है[1] और समस्त गीता को भली-भाँति सुन लेने के बाद इस अध्याय के तिहत्तरवें श्लोक में स्वयं अर्जुन ने भगवान् को यह स्वीकृति देकर कि ‘करिष्ये वचनं तव’ (मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा) फिर स्वधर्मरूप युद्ध ही किया है। इसलिये यहाँ समस्त कर्मों को भगवान् में समर्पण कर देना अर्थात् सब कुछ भगवान् का समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर में तथा उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों में और उनके फलरूप समस्त भोगों में ममता, आसक्ति, अभिमान और कामना का सर्वथा त्याग कर देना और केवल भगवान् के ही लिये भगवान् की आज्ञा और प्रेरणा के अनुसार, जैसे वे करवावें वैसे; कठपुतली की भाँति उनको करते रहना- यही यहाँ समस्त धर्मों का परित्याग करना है, उनका स्वरूप से त्याग करना नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3।30;8।7;11।34
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