श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
सर्वगुह्यतमं भूय: श्रृणु मे परमं वच: ।
उत्तर- भगवान ने यहाँ तक अर्जुन को जितनी बातें कहीं, वे सभी बातें गुप्त रखने योग्य हैं; अतः उनको भगवान् ने जगह-जगह ‘परम गुह्य’ और ‘उत्तम रहस्य’ नाम दिया है। उस समस्त उपदेश में भी जहाँ भगवान ने खास अपने गुण, प्रभाव, स्वरूप, महिमा और ऐश्वर्य को प्रकट करके यानी मैं ही स्वयं सर्वव्यापी, सर्वधार, सर्वशक्तिमान, साक्षात सगुण-निर्गुण परमेश्वर हूँ- इस प्रकार कहकर अर्जुन को अपना भजन करने के लिये और अपनी शरण में आने के लिये कहा है, वे वचन अधिक-से-अधिक गुप्त रखने योग्य हैं। इसीलिये भगवान् ने नवें अध्याय के पहले श्लोक में ‘गुह्यतमम्’ और दूसरे में ‘राजगुह्यम्’ विशेषण का प्रयोग किया है; क्योंकि उस अध्याय में भगवान् ने अपने गुण, प्रभाह, स्वरूप, रहस्य और ऐश्वर्य का भली-भाँति वर्णन करके अर्जुन को स्पष्ट शब्दों में अपना भजन करने के लिये और अपनी शरण में आने के लिये कहा है। इसी तरह दसवें अध्याय में पुनः उसी प्रकार अपनी शरणा गति का विषय आरम्भ करते समय पहले श्लोक में ‘वचः’ के साथ ‘परमम्’ विशेषण दिया है। अतएव यहाँ भगवान् ‘वचः’ पद के साथ ‘सर्वगुह्यतमम्’ और ‘परमम्’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाते हैं कि मेरे कहे हुए उपदेश में भी जो अत्यन्त गुप्त रखने योग्य सबसे अधिक महत्त्व की बात है, वह मैं तुम्हें अगले दो श्लोक में कहूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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