श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य के लिये जो कर्म विहित हैं, उनका वाचक यहाँ ‘कर्मणि’ पद है। शास्त्रनिषिद्ध पापकर्मों का वाचक ‘कर्मणि’ पद नहीं है; क्योंकि पापकर्मों में मनुष्य का अधिकार नहीं है, उनमें तो वह रोग-द्वेष के वश में होकर प्रवृत्त हो जाता है, यह उसकी अनाधिकार चेष्टा है। इसीलिये वैसे कर्म करने वालों को नरकादि में दुःख भुगताकर दण्ड दिया जाता है। यहाँ ‘तेरा कर्म करने में ही अधिकार है’ यह कहकर भगवान् ने ये भाव दिखलाये हैं- (1) इस मनुष्यशरीर में ही जीवन नवीन कर्म करने की स्वतन्त्रता दी जाती है; अतः यदि वह अपने अधिकार के अनुसार परमेश्वर की आज्ञा का पालन करता रहे और उन कर्मों में तथा उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके उन कर्मों का परमात्मा की प्राप्ति का साधन बना ले तो वह सहज में ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। तुम्हें इस समयमनुष्य शरीर प्राप्त है, अतः तुम्हारा कर्मों में अधिकार है; इसलिये तुम्हें इस अधिकार का सदुपयोग करना चाहिये। (2) मनुष्य का कर्म करने में ही अधिकार है, उनका स्वरूपतः त्याग करने में वह स्वतन्त्र नहीं है; यदि वह अहंकारपूर्वक हठ से कर्मों के स्वरूपतः त्याग की चेष्टा भी करे तो भी सर्वथा त्याग नहीं कर सकता[1], क्योंकि उसका स्वभाव उसे जबरदस्ती कर्मों में लगा देता है।[2] ऐसी परिस्थिति में उसके द्वारा उस अधिकार का दुरुपयोग होता है तथा विहित कर्मों के त्याग से उसे शास्त्राज्ञा के त्याग का भी दण्ड भोगना पड़ता है। अतएव तुम्हें कर्तव्य-कर्म अवश्य करते रहना चाहिये, उनका त्याग कदापि नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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