श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय सम्बन्ध- इस प्रकार ब्रह्मभूत योगी को परा भक्ति की प्राप्ति बतलाकर अब उसका फल बतलाते हैं- भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत: ।
उत्तर- पूर्व के श्लोक में जिसका ‘पराम्’ विशेषण के सहित ‘मभ्दक्तिम्’ पद से और पचासवें श्लोक में ज्ञान की परानिष्ठा के नाम से वर्णन किया गया है, उसी तत्त्वज्ञान का वाचक यहाँ ‘भक्त्या’ पद है। यही ज्ञानयोग, भक्तियोग कर्मयोग और ध्यानयोग आदि समस्त साधनों का फल है; इसके द्वारा ही सब साधकों को परमात्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होकर उनकी प्राती होती है। इस प्रकार समस्त साधकों के फल की एकता करने के लिये ही यहाँ ज्ञानयोग के प्रकरण में ‘भक्त्या’ पद का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- इस भक्ति के द्वारा योगी मुझको, में जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि इस परा भक्तिरूप तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होने के साथ ही वह योगी उस तत्त्वज्ञान के द्वारा मेरे यथार्थ रूप को जान लेता है; मेरा निर्गुण-निराकार रूप क्या है, और सगुण-निराकार और सगुण-साकार रूप क्या है, मैं निराकार से साकार कैसे होता हूँ और पुनः साकार से निराकार कैसे होता हूँ- इत्यादि कुछ भी जानना उसके लिये शेष नहीं रहता। अतएव फिर उसकी दृष्टि में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रहता। इस प्रकार ज्ञानयोग के साधन से प्राप्त होने वाले निर्गुण-निराकार ब्रह्म के साथ सगुण ब्रह्म की एकता दिखलाने के लिये यहाँ ज्ञानयोग के प्रकरण में भगवान ने ब्रह्म के स्थान में ‘माम्’ पद का प्रयोग किया है। प्रश्न- ‘तत्ः’ पद का क्या अर्थ है? उत्तर- ‘तत्ः’ पद हेतु-वाचक है। परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान होने के साथ ही परमात्मा की प्राप्ती हो जाती है- उसमें काल का व्यवधान नहीं होता, इस कारण यहाँ ‘तत्ः’ पद का अर्थ पश्चात नहीं किया गया है। अतः जिसका प्रकरण हो उसी हेतु का वाचक ‘तत्ः’ पद होता है; तथा यहाँ ‘ज्ञात्वा’ पद के साथ उसके हेतु का अनुवाद करने की आवश्यकता भी थी- इस कारण ‘तत्ः’ पद का अर्थ पूर्वार्द्ध में वर्णित ‘परा भक्ति’ समझना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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