श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- इन्द्रियों के प्रत्येक भोग में राग और द्वेष-ये दोनों छिपे रहते हैं, ये साधक के महान् शत्रु हैं।[1] अतएव इस लोक या परलोक के किसी भी भोग में, किसी भी प्राणी में तथा किसी भी पदार्थ, क्रिया अथवा घटना में किंचिन्मात्र भी आसक्ति या द्वेष न रहने देना राग-द्वेष का सर्वथा नाश कर देना है; और इस प्रकार राग-द्वेष का नाश करके जो निःस्पृहभाव से निरन्तर वैराग्य में मग्न रहना है, यही राग-द्वेष का नाश करके भली-भाँति वैराग्य का आश्रय लेना है। प्रश्न- अहंकर, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करना तथा इन सब का त्याग करके निरन्तर ध्यानयोग के परायण रहना क्या है? उत्तर- शरीर, इन्द्रियों और अन्तःकरण में जो आत्मबुद्धि है- उसका नाम अहंकार है; इसी के कारण मनुष्य मन, बुद्धि और शरीर द्वारा किये जाने वाले कर्मों में अपने को कर्ता मान लेता है। अतएव इस देहाभिमान का सर्वथा त्याग कर देना अहंकार का त्याग कर देना है। अन्यायपूर्वक बलात् जो दूसरों पर प्रभुत्व जमाने का साहस है, उसका नाम ‘बल’ है; इस प्रकार के दुःसाहस का सर्वथा त्याग कर देना बल का त्याग कर देना है। धन, जन, विद्या, जाति और शारिरिक शक्ति आदि के कारण होने वाला जो गर्व है- उसका नाम दर्प यानी घमंड है; इस भाव का सर्वथा त्याग कर देना घमंड का त्याग कर देना है। इस लोक और परलोक के भोगों को प्राप्त करने की इच्छा का नाम ‘काम’ है, इसका सर्वथा त्याग कर देना काम का त्याग कर देना है। अपने मन के प्रतिकूल आचरण करने वाले पर और नीतिविरुद्ध व्यवहार करने वाले पर जो अन्तःकरण में उत्तेजना का भाव उत्पन्न होता है-जिसके कारण मनुष्य के नेत्र लाल हो जाते है, होंठ फड़कने लगते हैं, हृदय में जलन होने लगती है और मुख विकृत हो जाता है- उसका नाम क्रोध है; इसका सर्वथा त्याग कर देना, किसी भी अवस्था में ऐसे भाव को उत्पन्न न होने देना क्रोध का त्याग कर देना है। सांसारिक भोगो की सामग्री का नाम ‘परिग्रह’ है, अतएव उन सबका सर्वथा परित्याग कर देना ही मुख्यतया परिग्रह का त्याग है परन्तु प्रकारान्तर से सांसारिक भोगों को भोगने के उद्देश्य से किसी भी वस्तु का संग्रह न करना भी परिग्रह का त्याग कर देना ही है। इस प्रकार इन सब का त्याग करके पूर्वोक्त प्रकार से सात्त्विक धृति के द्वारा मन-इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर समस्त स्फुरणाओं का सर्वथा आभाव करके, नित्य-निरन्तर सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का अभिन्नभाव से चिन्तन करना[2] तथा उठते-बैठते, सोते-जागते एवं शौच-स्नान, खान-पान आदि आवश्यक क्रिया करते समय भी नित्य-निरन्तर परमात्मा के स्वरूप का चिंतन करते रहना एवं उसी को सबसे बढ़कर परम कर्तव्य समझना ध्यानयोग के परायण रहना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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