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अष्टादश अध्याय
सम्बन्ध- पूर्वश्लोक में की हुई प्रस्तावना के अनुसार अब तीन श्लोकों में अंग-प्रत्यंगों के सहित ज्ञानयोग का वर्णन करते हैं-
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मनं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषै व्युदस्य च ।। 51 ।।
विविक्तसेवी लध्वाशी यतवाक्कायमानस: ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित: ।। 52 ।।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। 53 ।।
विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हल्का, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारणशक्ति के द्वारा अंत:करण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला राग-द्वेष को सर्वथा नष्ठ करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यानयोग के परायण रहने वाला ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सद्यिदानंद ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र है।।51-53।।
प्रश्न- विशुद्ध बुद्धि’ किसे कहते हैं और उससे युक्त होना क्या है?
उत्तर- पूर्वार्जित पाप के संस्कारों से रहित अन्तःकरण को ‘विशुद्ध बद्धि’ कहते हैं और जिसका अन्तःकरण इस प्रकार विशुद्ध हो गया हो, वह शुद्ध बुद्धि से युक्त कहलाता है।
प्रश्न- शब्द आदि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करना क्या है?
उत्तर- समस्त इन्द्रियों के जितने भी सांसारिक भोग हैं, उन सबका त्याग करके अर्थात् उनको भोगने में अपने जीवन का अमूल्य समय न लगाकर-निरन्तर साधन करने के लिये, जहाँ का वायुमण्डल पवित्र हो, जहाँ बहुत लोगों का आना-जाना न हो, जो स्वभाव से ही एकान्त और स्वच्छ हो या झाड़-बुहारकर और धोकर जिसे स्वच्छ बना लिया गया हो- ऐसे नदी तट, देवालय, वन और पहाड़ की गुफा आदि स्थानों में निवास करना ही शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करना है।
प्रश्न- सात्त्विक धारणशक्ति के द्वारा अन्तःकरण और इन्द्रियों का संयम करना क्या है तथा ऐसा करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेना क्या है?
उत्तर- इसी अध्याय के तैतीसवें श्लोक में जिसके लक्षण बतलाये गये हैं, उस अटल धारणशक्ति के द्वारा शुद्ध आग्रह से अन्तःकरण को संसारिक विषयों के चिंतन से रहित बनाकर इन्द्रियों को सांसारिक भोगों में प्रवृत न होने देना ही सात्त्विक धारणा से अन्तःकरण और इन्द्रियों का संयम करना है और इस प्रकार के संयम जो मन, इन्द्रिय और शरीर को अपने अधीन बना लेना है- उसमे इच्छाचारिता का और बुद्धि के विचलित करने की शक्ति का अभाव कर देना है- यही मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेना है।
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